Uncategorized – Blog | Kayasth Vivaah https://blog.kayasthvivaah.com Meet Kayastha brides and grooms on Kayastha matrimonial for matchmaking. Register for free. Fri, 02 Apr 2021 12:18:46 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.1.6 https://blog.kayasthvivaah.com/wp-content/uploads/2020/09/cropped-FAVICON-32x32.png Uncategorized – Blog | Kayasth Vivaah https://blog.kayasthvivaah.com 32 32 उड़ीसा में कर्ण कायस्थ https://blog.kayasthvivaah.com/2021/04/02/%e0%a4%89%e0%a4%a1%e0%a4%bc%e0%a5%80%e0%a4%b8%e0%a4%be-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a3-%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a5/ https://blog.kayasthvivaah.com/2021/04/02/%e0%a4%89%e0%a4%a1%e0%a4%bc%e0%a5%80%e0%a4%b8%e0%a4%be-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a3-%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a5/#respond Fri, 02 Apr 2021 12:17:22 +0000 https://blog.kayasthvivaah.com/?p=2213 उड़ीसा में कर्ण कायस्थ Read More »

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उड़ीसा के कायस्थ परिवारों को कर्ण परिवार कहा जाता है। अब तक उड़ीसा के कायस्थों पर ऐसी कोइ पुस्तक नहीं लिखी गइ जिससे यह पता चल सके कि इन्हें केवल ‘कर्ण’ के नाम से ही क्यों जाना जाता है।

उड़ीसा के कर्ण समाज की निम्नलिखित पदवियाँ\उपाधियाँ हैं – पटनायक, महान्ति, कानूनगो, दास आदि। महान्ति, दास, कानूनगो, पदवी खेतिहरों में मिलती है। ये अपने आपको ‘खंडायत’ कहते हैं जिसका अर्थ क्षत्रिय है, परन्तु क्षत्रिय समाज में भी इनका स्थान भिन्न है। उसके निम्नलिखित कारण हैं – कर्ण समुदाय सदा से शिक्षित होने के कारण सम्पन्न रहा है। अत: अन्य सम्पन्न व्यक्तियों की तरह ये भी ‘दासी’ रखते थे। इन दासियों के वंशजों को गुमा महान्ति\गुलाम कर्ण कहा गया। उड़ीसा में तीन जातियाँ ही समृद्धि के चरम शिखर पर थीं और अब भी हैं। वे हैं – कायस्थ, ब्राह्राण और क्षत्रिय। उड़ीसा कायस्थों की मूलत: दो ही उपाधियां मिलती हैं – पटनायक एवं महान्ति ।

उड़ीसा के कायस्थ परिवार अक्सर सामुदायिक रुप से रहते हुये मिलते हैं। इन स्थानों को ‘कर्ण सार्इ’ (कर्ण बस्ती) कहा जाता है। कटक जिला के बिरीमाटी, कंदरपुर, सालेपुर, महागा, नेनापुर, सुकदेर्इपुर, बलरामपुर, तलगढ, चित्तापल्ली, तालगडि़या, मसूदपुर, मल्लपाड़ा, जखपूरा, बालेश्वर जिला के बालेश्वर रदांगा, केऊ़झर जिला के देवंग, कुलेश्वर आदि इसी प्रकार के कर्ण परिवारों की प्रसिद्ध बस्तियाँ हैं।

उड़ीसा के कर्ण परिवार के पर्वो में ‘राम्हा पूर्णिमा’ (भाद्रपद पूर्णिमा), विजयादशमी (दशहरा) और सरस्वती पूजा प्रसिद्ध है। इन पर्वों में लेखनी और ताड़पत्र की पोथी की पूजा की जाती है। गम्हा पूर्णिमा के दिन भगवान चित्रगुप्त की पूजा की जाती है। सरस्वती पूजा के दिन माता-पिता सरस्वती के साथ-साथ लेखनी और पोथी की पूजा भी करते हैं। गम्हा पूर्णिमा और सरस्वती पूजा के दिन बच्चों को लेखनी (कलम) पकड़ कर विधारम्भ करने की रीति है। ऐसा विश्वास है कि इन दिनों में प्रभु चित्रगुप्त स्वयं अपने वंशधर को आशीर्वाद सहित विधारम्भ की अनुमति देते हैं। कर्ण समुदाय में अनपढ़ होना पाप माना जाता है।

उड़ीसा के कायस्थ परिवार राजनीति, साहित्य, संगीत आदि हर क्षेत्र में अग्रणी हैं। उड़ीसा के कायस्थ समाज के कुछ व्यक्ति जो अपने अपने क्षेत्र में अद्वितीय रहे, वे निम्नलिखित हैं –

  1. गोपीनाथ महान्ति – उपन्यासकर – माटी मटाक (ज्ञानपीठ पुरुस्कार प्राप्त)
  2. कवि चन्द्र कालीचरन पटनायक – कवि, नाटककार – कुमार चक्र (साहित्य अकादमी पुरुस्कार प्राप्त)
  3. श्री कान्हु चरण महान्ति – उपन्यासकार – बालीराज हा अन्न
  4. डॉ0 जगन्नाथ पटनायक – इतिहासकार
  5. श्री बीजू पटनयक, मुख्यमंत्री, उधोगपति
  6. श्री जानकी वल्लभ पटनायक, मुख्यमंत्री
  7. श्री बांके बिहारी दास – कांग्रेस के उपसभापति
  8. श्री विच्छद चरण – कवि, कलिंग भारत के प्रषिठाता, मंचीय साहित्य के पुनरुद्वारक
  9. श्री नागरी मोहन पटनायक, मुख्य सचिव, केरल सरकार
  10. श्री विनोद कानूनगो – उड़ीसा ज्ञान मण्डल का अकेला लेखक सम्पादक एवं प्रतिष्ठाता
  11. श्री अखिल मोहन पटनायक – कहानीकार, संपादक-समावेश
  12. श्री अक्षय महान्ति – चलचित्र गायक, गीतकार
  13. कु0 गिरिबाला महान्ति – उड़ीसा की प्रथम विमान चालिका (पायलट)
  14. श्रीमती माधुरी पटनायक – न्यायाधीश
  15. डॉ0 (श्रीमती) चारुवाला महान्ति – चिकित्सक
  16. श्री नवीन पटनायक – मुख्यमंत्री

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कायस्थ – एक कहानी एक सत्य https://blog.kayasthvivaah.com/2021/04/02/%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a5-%e0%a4%8f%e0%a4%95-%e0%a4%95%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%80-%e0%a4%8f%e0%a4%95-%e0%a4%b8%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%af/ https://blog.kayasthvivaah.com/2021/04/02/%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a5-%e0%a4%8f%e0%a4%95-%e0%a4%95%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%80-%e0%a4%8f%e0%a4%95-%e0%a4%b8%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%af/#respond Fri, 02 Apr 2021 12:11:59 +0000 https://blog.kayasthvivaah.com/?p=2211 कायस्थ – एक कहानी एक सत्य Read More »

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ये पोस्ट मुझे एक बुजुर्ग चित्रांश ने भेजा है कृपया जरूर पढ़े और अपना मत जरूर लिखे।

किसी मेले में एक स्टाल लगा था जिस पर लिखा था , बुद्धि विक्रय केंद्र ” ! लोगो की भीड उस स्टाल पर लगी थी ! मै भी पहुंचा तो देखा कि उस स्टाल पर अलग अलग शीशे के जार में कुछ रखा हुआ था !

एक जार पर लिखा था- कायस्थ की बुद्धि-500 रुपये किलो

दूसरे जार पर लिखा था – दलित की बुद्धि-1000 रुपये किलो

तीसरे जार पर लिखा था- क्षत्रिय की बुद्धि-2000 रुपये किलो

चौथे जार पर लिखा था- यादव की बुद्धि- 50000 रुपये किलो और

पांचवे जार पर लिखा था- ब्राह्मण की बुद्धि-100000 रुपया किलो।

मैं हैरान कि इस दुष्ट ने कायस्थ की बुद्धि की इतनी कम कीमत क्यों लगाई? गुस्सा भी आया कि इसकी इतनी मजाल, अभी मजा चखाता हूँ। गुस्से से लाल मै भीड को चीरते हुआ दुकानदार के पास पहुंचा और उससे पूछा कि तेरी हिम्मत कैसे हुयी जो कायस्थ की बुद्धि इतनी सस्ती बेचने की ?

 उसने मेरी तरफ देखा और मुस्कराया, हुजूर बाजार के नियमानुसार… जो चीज ज्यादा उत्पादित होती है, उसका रेट गिर जाता है !   आपलोगो की इसी बहुतायत बुद्धि के कारण ही तो आपलोग दीनहीन पड़े हैं ! राजनीति में कोई पूछने वाला भी नहीं है आपलोगों को.. स्वर्णिम इतिहास होने के बावजूद विकास की धारा से हट चुके हैं आप लोग… सब एक दूसरे की टांग खींचते हैं और सिर्फ अपना नाम बडा देखना चाहते हैं ! किसी को सहयोग नहीं करते… काम करने वाले की आलोचना करते है और नीचा दिखाते हैं ! आज हर समाज में एकता देखने को मिलती है सिर्फ कायस्थ समाज को छोड़कर… जाइये साहब…पहले अपने समाज को समझाइये और मुकाम हासिल करिए ! और फिर आइयेगा मेरे पास… तो आप जिस रेट में कहेंगे, उस रेट में आपकी बिरादरी की बुद्धि बेचूंगा !! मेरी जुबान पर ताला लग गया और मैं अपना सा मुंह लेकर चला आया ! इस छोटी सी कहानी के माध्यम से जो कुछ मैं कहना चाहता हूं, आशा करता हूँ कि समझने वाले समझ गये होंगे ! और जो ना समझना चाहे वो अपने आपको बहुत बडा खिलाडी समझ सकते हैं !!!!! (नोट : कृपया इस पोस्ट को केवल कायस्थों के बीच आगे बढ़ाएँ और सुधार हेतु चर्चा करें )
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कायस्थ का ऐतिहासिक स्थिति https://blog.kayasthvivaah.com/2021/04/02/%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a5-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%90%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%b8%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a5%e0%a4%bf%e0%a4%a4/ https://blog.kayasthvivaah.com/2021/04/02/%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a5-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%90%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%b8%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a5%e0%a4%bf%e0%a4%a4/#respond Fri, 02 Apr 2021 12:11:24 +0000 https://blog.kayasthvivaah.com/?p=2216 कायस्थ का ऐतिहासिक स्थिति Read More »

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कायस्थों की सामाजिक स्थिति आज भी प्रभावशाली है I इनकी मेधा, बुद्धि की क्षमता, शासन करने के गुण व आभिजात्य आज भी उल्लेखनीय हैं I वर्णव्यवस्था के चारो वर्णों में स्थान न पाने के बावजूद प्राचीन काल (ई पू 600 बी सी से ई सन् 1206) में समाज में कायस्थों की स्थिति बहुत सम्मानजनक थी I ये सामान्य रूप से तत्कालीन शासकों के यहाँ लेखक और गणक का कार्य तो करते ही थे, कई क्षेत्रों में ये शासक भी थे I कुछ लोगों का कहना हैं कि रघुवंशियों के पहले अयोध्या पर माथुर कायस्थों का शासन थाI भारत पर मुहम्मद गजनी के आक्रमण को अफगानिस्तान के जिस राजा जयपाल ने रोकना चाहा था वह कायस्थ थे I

   कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार कायस्थ कश्मीरी शासकों के अधीन बहुत उँचे पदों पर थेI कायस्थ राजा ललितादित्य मुक्तापीड़, आठवीं सदी, में कश्मीर पर शासन कर रहे थेI कश्मीर की राजनीति में कायस्थों की अच्छी दखल थीI चौथी सदी में गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत बंगाल में पहली बार आर्यों, कायस्थों और ब्राह्मणों की कालोनियाँ बनीं तो गुप्त शासकों ने इसकी व्यवस्था में कायस्थों की सहायता लीI  

   अकबर के प्रधान मंत्री अबुल फजल के अनुसार बंगाल के पाल शासक कायस्थ थेI यहाँ के बारहवीं सदी के सेन शासक भी गौड़ कायस्थ थेI विवेकानंद के अनुसार एक समय आधे भारत पर कायस्थों का शासन था I    वस्तुत: तेरहवीं सदी के पूर्व तक हिंदू राजाओं के शासन की उँची नौकरियों पर कायस्थों का लगभग एकाधिकार थाI दक्षिण के चोल, चालुक्य और पहलव आदि शासक कायस्थ ही थे I ब्रिटिशकाल में कराए गए भारत के एक मानवशास्त्रीय सर्वेक्षण में मानवशास्त्रियों ने पाया था कि कायस्थ मौर्य काल में भी शासन के अंग थे और बहुत प्रभावशाली थेI कई अभिलेख ऐसे भी मिलते हैं जिसमें खासकर कायस्थों को दान में भूमि देने का उल्लेख हैं I  

    संवत् 907 विक्रम (सन् 850 ईI) में विद्यमान मेधातिथि ने मनुस्मृति की अपनी टीका में स्वीकार किया है कि राजा द्वारा दी हुई भूमि आदि का शासन कायस्थ के हाथ का लिखा ही प्रमाणित माना जाता था I

  मध्ययुग के सल्तनत व मुगलकाल (1206-1526 य1526-1707)  में भी कायस्थों ने अपना प्रभुत्व बनाए रखा थाI मुगलकाल में राजभाषा पर्सियन थीI इन लोगों ने शासन की राजभाषा पर्सियन पर अधिकार किया और इस शासन के उंचे पदों पर नियुक्ति पाईI अकबर की मंत्रिपरिषद में राजस्व मंत्री राजा टोडरमल थे जो कायस्थ थेI इन्होंने ही अकबर की राजस्व-नीति की नींव रखी थी जो कमोबेश आज भी मान्य हैI इन्होंने गीता का पर्सियन में अनुवाद भी किया थाI
  राजा टोडरमल ने पटना के नौजर घाट में कायस्थों के आराध्य ‘चित्रगुप्त’ की काले पत्थर की एक छोटी पर भव्य मूर्ति स्थापित करवाई थी जो आज भी हैI यह मूर्ति आज से कुछ वर्षों पूर्व चोरी चली गई थीI वह मिलीI इस मूर्ति को उस गाँव के एक ग्रामीण श्रवण भगत ने सहेजकर रखा अभी कुछ समय पहले सोनपुर के एक गाँव चित्रसेनपुर के चौर से मिट्टी काटने के दौरान था I  अब इस मूर्ति को नौजर घाट के उसी मंदिर में पुनस्र्थापित कर दिया गया है
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    ब्रिटिश शासक मुगलों से दुराव रखते थे क्योंकि उन्हें ही अपदस्थ कर वे सत्ता में आए थेI कायस्थ मुगल शासन में ऊँचे ओहदों पर रह चुके थे I अत: अंग्रेज कायस्थों को भी अच्छी नजर से नही देखते थेI
मुस्लिम पीरियड में हर मामले का फैसला मुस्लिम कानूनों के अनुसार होता थाI ब्रिटिश शासकों ने        अपना रेगुलेशन सन् 1772 ई में पारित किया जो एक निश्चत सीमा तक हिंदू विधि को पुनर्स्थापित कियाI यह सन् 1793 ई में लागू हुआ I  हिंदू धर्मशास्त्रों की खोज की गई  ब्रिटिश विद्वानों ने उनका अध्ययन किया, लेख और डाइजेस्ट लिखे I

   हिंदू धर्मशास्त्रों में शूद्रों के लिए उँची नौकरियों में नियुक्ति वर्जित थी I  अत: कुछ उच्च जातियों ने कायस्थों को स्थायी रूप से शूद्र घोषित कराने के लिए सन् 1873 ई में कलकत्ता हाईकोर्ट में एक वाद दाखिल किया I वे शासन में उँची नौकरियों को अपने लिए सुरक्षित करा लेना चाहते थे, किंतु इसकी भनक लगते ही बंगाल, बंबई और संयुक्त प्रांत (आज का उत्तर प्रदेश) के कायस्थों ने उच्च न्यायालय में इस वाद का विरोध कियाI इनमें इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला के संस्थापक काली प्रसाद कुलभाष्कर भी थेI इन लोगों ने शूद्रत्व के विरुद्ध अनेक धार्मिक, साहित्यिक और ऐतिहासिक साक्ष्य जुटाए और न्यायालय में पेश किया I इन साक्ष्यों में उन लोगों ने कायस्थ को क्षत्रिय वर्ण के रूप में पेश कियाI सन् 1877 ई में इस वाद का फैसला आयाI वाद में कायस्थों को शूद्र घोषित करने के लिए किए गए उच्च जातियों के अनुरोध को न्यायालय ने खारिज कर दियाI फलत: कायस्थों को शूद्रत्व से छुटकारा मिल गयाI और अंग्रेजी शासन की जनसांख्यिकी में इन्हें (कायस्थों को) शूद्रों की श्रेणी में दर्ज नहीं किया गयाI किंतु यह समुदाय मेधावी तो था ही I जिस तरह इस समुदाय ने अरबी और पर्सियन पर अधिकार किया था वैसे ही इन्होंने बहुत आसानी से अंग्रेजी भाषा में भी महारत हासिल कर ली और अंग्रेजों के शासन में भी ये उँचे पद प्राप्त करने में सफल हो सके I      स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक ब्रिटिश शासन की सेवा में होने का इनका प्रतिशत बहुत ऊँचा थाI सन् 1765 ई में बक्सर की लड़ाई में मुगल शासक शाह आलम के अंग्रेजों से हारने के बाद कंपनी सरकार को जब बिहार और उड़िसा की दीवानी मिली थी तो राजा सिताब राय को दोनों प्रांतो का दीवान बनाया गया था जो कायस्थ थेI स्वतंत्रता की लड़ाई में भी कायस्थों ने बढचढ़़कर हिस्सा लिया थाI

  मुस्लिम काल में कायस्थों के प्रभाव का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि सरकारी राजस्व का लेखाजोखा कायस्थ ही रखते थेI जिस लिपि में यह रिकाँर्ड किया जाता था उस लिपि का नाम ही इनके नाम पर कैथी पड़ गया I कैथी (कायती, कायस्थी, कैथी)I विद्वान इस लिपि का उद्भव सोलहवीं सदी में मानते हैंI अशोक वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘‘कायस्थों की सामाजिक पृष्ठभूमि’’ में एक शोध का जिक्र किया है जिसमें कैथी को अंगिका से विकसित अंगी लिपि का वर्तमान रूप बताया गया है I

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भगवान चित्रगुप्त का प्रादुर्भाव https://blog.kayasthvivaah.com/2021/04/02/%e0%a4%ad%e0%a4%97%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a8-%e0%a4%9a%e0%a4%bf%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%97%e0%a5%81%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%a4-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%be/ https://blog.kayasthvivaah.com/2021/04/02/%e0%a4%ad%e0%a4%97%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a8-%e0%a4%9a%e0%a4%bf%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%97%e0%a5%81%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%a4-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%be/#respond Fri, 02 Apr 2021 12:10:33 +0000 https://blog.kayasthvivaah.com/?p=2227 भगवान चित्रगुप्त का प्रादुर्भाव Read More »

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पुराणों के आधार पर हमने ऐसा माना है कि प्रत्येक युग के अंत में एक-एक अवतार ऐसे समय में होता है जब संसार का और विषेष रुप से देवताओं का कार्य सुचारु रुप से नहीं चलता और उनके कार्य में लगातार विध्न बाधायें पड़ने लगती हैं तथा उनको कोर्इ भी मार्ग दिखार्इ नहीं देता है तभी सभी देवता ब्रहमा जी को आगे कर उस आदि शकित पारब्रहम परमेश्वर, जिसका वर्णन वेद पुराणों में मिलता है तथा जिसको हम देख नहीं सकते, जिसका नाम चित्रगुप्त है असका ध्यान करते हैं और वह आदि शकित पारब्रह्रा परमेश्वर हैं। उन देवताओं की सहायता के हेतु संसार का कार्य सुचारु रुप से चलाने के लिए समय-समय पर अवतार होता है।

वैदिक काल में परात्पर ब्रह्रा चित्रगुप्त, पुराणेतर काल में कायस्थ तथा कालान्तर में विभिन्न पदों के स्वामी के रुप में अपने कार्य में श्रेष्ठता व दक्षता का पर्याय ही कायस्थ थे। ‘कार्ये सिथत: स: कार्यस्थ’ जो कार्य में सिथत हो, इतना लीन हो कि वह स्वयं ही कार्य का पर्याय बन जाए – वही कार्यस्थ (कायस्थ है)। सरस्वती व लक्ष्मी का मेल कायस्थ ही कर पाए। वास्तव में श्री उनकी चेटी होकर उन्हीं श्रीवास्तव बना गर्इ। अलौकिक ज्ञान-ध्यान को लौकिक पुरुषार्थ-पराक्रम से देश-समाज कल्याण में प्रयुक्त करने वाले कायस्थों में श्रेष्ठता, अभिजात्यता, विद्वता, वीरता, उदारता, सहिष्णुता तथा सामंजस्यता के गुण अभिन्न रुप में रहे। कायस्थों ने आयुर्विज्ञान, शिक्षा, सैन्य, धर्म आदि क्षेत्रों में निपुणता प्राप्त की।

श्रुति-स्मृति के युग में बढ़ती ज्ञान राशि के दुरुपयोग से उपजी व्यवस्था व कार्यविभाजन से अयोग्यों के पदलाभ की दशा में लेखनि, लिपि, मसि तथा पत्र का अविष्कार कर कायस्थ (चित्रगुप्त) ने ज्ञान-विज्ञान को लौकिक जनकल्याण का पथ दिखाया। आर्य-अनार्य, देव-नाग आदि संस्कृतियों के समिमलन का श्रेय भी कायस्थों को ही है। सत्ता का जनकल्याण के लिए उपयोग करने वाले कायस्थ क्रमश: सत्ता पद मे पद का गौरव व कर्तव्य भूलकर पथभ्रष्ट व बदनाम भी हुए। कायस्थों से द्वेष करने वाले जन्मना श्रेष्छता के हामी विप्र वर्ग ने रचित साहित्य में उन्हें दूषित चित्रित किया किन्तु इस सत्य को मिटाया नहीं जा सकता कि विश्व में श्रेष्ठतम मूल्यों को आत्मसात करने वाली भारतीय संस्कृति कायस्थों द्वारा सृजित और विकसित है। स्वामी विवकानंद ने कहा भी है कि भारतीय संस्कृति से कायस्थों का योगदान निकाल दिया जाये तो शेष कुछ भी नहीं बचेगा।

कायस्थों ने जन्मना वंश परंपरा के स्थान पर जाति प्रथा की स्थापना की। जाति अर्थात वर्ग या श्रेणी विशेष। सृषिट पूर्व का एकत्व सृषिट आरंभ होते ही विविधत्व में बदलता है। विविधता से वर्ग सभ्यता जन्मती है। विविधता से ही जाति के जातक शकितशाली बनते हैं। विविधता का लोप ही जाति का विनाश है। जाति का मूल अर्थ था – प्रत्येक व्यकित की अपनी प्रकृति को, अपने विशेषत्व को प्रकाशित करने की स्वतंत्रता। जातियों में खान-पान व विवाह संबंध भी मान्य थे। भारत के पतन का भी मूल कारण भी कायस्थों का निर्बल होना, वंशवादी विप्रवर्ग का हावी होना तथा जाति सम्बन्धी उदारता नष्ट होकर संकीर्ण साम्प्रदायिकता, कटटर धर्मान्धता तथा उपजाति आदि का प्रभाव था।

त्रेता युग के अन्त में दूसरे कारणों के साथ-साथ रावण का आतंक बहुत ही बड़ा-चढ़ा हुआ था, इसलिए यह रामावतार का कारण बन गया।

द्वापर युग के अन्त में कर्इ कारणों के साथ-साथ कंस का आतंक बढ़ा हुआ था, इसी से यह कृष्ण अवतार का कारण बन गया। इसी प्रकार सतयुग में कर्इ कारणों के साथ-साथ दैत्य एवं दानवों का आतंक काफी बढ़ा हुआ था, इसलिए यह चित्रगुप्त जी महाराज के अवतार का कारण बन गया।

सतयुग मे देवताओं एवं दैत्यों के बडे़-बड़े विकराल युद्ध हुये हैं। इस युद्ध में देवता हार गये और अन्त में अपना राज-पाट खो दिया। इन्द्र महाराज को न जाने कितनी बार अपना सिंहासन छोड़ना पडा और धर्मराज के यहा स्वर्ग में जगह नहीं थी तथा सम्पूर्ण नरक खाली पड़ा था क्योंकि वह दैत्यों कि मनमानी करने से रोकने में असमर्थ थे, जो स्पर्श में घुस जाते थे और धर्मराज को सिंहासन से धकेल देते थे। उस समय धर्मराज को यह आवश्यकता पड़ी की कोर्इ उनकी सहायता करे। वह बारी बारी से सभी देवताओं की सहायता लेने गये, परन्तु कोर्इ भी देवता उनकी सहायता करने के लिए तैयार नहीं हुआ क्योंकि वे उन दैत्यों का मुकाबला करने में असमर्थ थे। जब धर्मराज को कोर्इ उपाय न सूझा तब ब्रह्राजी के पास गये। देवता ब्रह्रा जी के पास सहायता के लिए जाते हैं, वे देवता की नाना प्रकार से सहायता करते हैं।

जब धर्मराज ब्रह्रा जी के पास गये और अपना सम्पूर्ण वृतान्त सुनाया तब ब्रह्राजी ने उनकी सहायता करने का आश्वासन देकर विदा किया और स्वंय सहायता करने हेतु ध्यानावस्थित हो गये।

सहायता हेतु सामर्थ्यवान ब्रह्रा अपने इष्टदेव, उस पारब्रह्रा परमेश्वर, उस महान एवं सर्व शकितमानआत्मा जिसका चित्र सदैव गुप्त रहता है, उसके ध्यान में मग्न हो गये और इसी ध्यान मग्न अवस्था में 11 हजार वर्ष व्यतीत हो गये। अन्त में उनके इष्ट देव उन पर प्रसन्न हुए उनको दर्शन दिये। जब ब्रह्रा जी ने भगवान चित्रगुप्त जी के दर्शन पाये तो अकस्मात, उनके मुख से निकल पड़ा ”चित्रगुप्त कायस्थ” चित्रगुप्त का अर्थ स्पष्ट है, वह चित्र जो सदा ही गुप्त रहता हो और यह शब्द भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार कायस्थ का अर्थ भी स्पष्ट है ‘जो काया में स्थ है अर्थात स्थित है, वही कायस्थ है। इसीलिए कहा भी गया है :

‘काये स्थित: स: कायस्थ:’

इसको भी भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसका अर्थ सर्व व्यापक तथा सर्वशक्तिमान होता है।

गवान चित्रगुप्त जी के हाथ में मसि पात्र (दवात), लेखनी (कलम), कृपाण (तलवार), तथा पुस्तक उनके प्रादुर्भाव के समय ही विधमान थे। यह इस बात का धोतक है कि ब्रह्राजी को मूक रुप से संकेत थे कि ‘हे ब्रह्रा ! तू मत घबरा तेरी सारी व्यवस्था और सम्पूर्ण समस्यायें अब हल हो जायेंगी” अर्थात मैं सम्पूर्ण लोकों का सारा विधान बना कर लेखा-जोखा लिखकर तुम्हारी समस्या का हल कर दूंगा। जन्म-मरण, खान-पान किस प्रकार हो और मृत्यु के पश्चात उस प्राणी के साथ कैसा व्यवहार किया जाय, यह सम्पूर्ण विवरण लिख कर तैयार किये देता हू। मेरे लिखने के अनुसार कोर्इ भी प्राणी चाहे देवता हो अथवा दैत्य, मनुष्य हो अथवा अन्य कोर्इ इनसे परे भी हो, यदि इन नियमों में किसी प्रकार बाधा उत्पन्न करेगा अथवा इनके विरुद्ध चलेगा उसको मैं इस तलवार के द्वारा समाप्त कर दूंगा और वह प्राणी नाश को प्राप्त होगा यह मेरा वचन है।

पदम पुराण के सृष्टि खण्ड पर यदि हम ध्यान दे तो उसमें लिखा है कि भगवान श्री चित्रगुप्त के प्रादुर्भाव के पश्चात ब्रह्राजी से उनकी वार्ता होने पर ब्रह्रा जी ने उनसे कहा कि वह शक्ति की आराधना करें। चुकि वह शक्ति सृष्टि में साकार है इसलिए सृष्टि के नियमानुसार उसको कोर्इ स्थान अवश्य चाहिए जहा पर विधान की पूर्ति कर सके। उस समय दुष्टों का विनाश करने को कोर्इ व्यवस्था कर सके इसीलिए भगवान श्री चित्रगुप्त जी ने कुछ काल के लिए अवंतिकापुर (उज्जैन) में जाकर निवास किया।

जो पहली प्रमुख विशेषता भगवान चित्रगुप्त जी के अवतार में हमारे सामने आती है, वह यह है कि प्रकट होते समय ही भगवान चित्रगुप्त जी के हाथों में कलम, दवात, पुस्तक और तलवार थी तथा वे उनके साथ सदा रहीं और रहेंगी। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जन्म के समय उनके हाथ में धनुष-बाण नहीं था और वह उनको सांसारिक मनुष्यों के द्वारा उस समय दिया गया जब वह खेलने योग्य हुए तथा योगिराज भगवान कृष्ण जी के हाथ में बांसुरी नहीं थी और वह उन्हें पाच वर्ष की अवस्था में दी गर्इ।

दूसरी विशेषता जो हमारे सामने भगवान चित्रगुप्त जी के प्रादुभाव के समय आती है वह यह कि ब्रह्रा जी को 11 हजार वर्ष की तपस्या के बाद उनकी समाधि खुलने पर जब भगवान चित्रगुप्त ने दर्शन दिये तब उनके सामने प्रत्यक्ष दिखार्इ दिया। किसी के गर्भ से उत्पन्न नहीं हुए जब कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम कौसल्या नन्दन और योगिराज कृष्ण देवकी नन्दन कहलाते हैं।

तीसरी विशेषता जो हमारे सामने है वह यह कि भगवान जिस रुप में प्रकट हुए और जिस कद में ब्रह्रा जी को दर्शन दिये उसी कद में रहे। संसारी जीवों की तरह बढ़े नहीं। मर्यादा पुरुषोत्तम राम और योगिराज कृष्ण पैदा होने के बाद संसारिक जीवो की तरह बढ़ते रहे। गोद में खिलाये गये, फिर घुटनों चले, फिर खड़़े होकर पैदल चले और जवान हुए। जवानी में तरह तरह के कष्ट उठाये और लीलाऐं की, अपने जीवन का अन्त करके अन्तध्र्यान हो गये। लेकिन भगवान चित्रगुप्त जी न तो पैदा हुए, न गोद में खिलाये गये, न घुटनों चले एसलिए खड़े होकर पैदल चलने और जवान होने का सवाल ही नहीं उठता है, उनको जीवन का न तो अन्त हुआ। वह जिस तरह प्रकट हुये उसी तरह रहे और सदा रहेंगे।

चौथी विशेषता जो हमारे सामने बहुत ज्यादा प्रत्यक्ष है वह यह है कि भगवान चित्रगुप्त जी को किसी गुरु ने विधा नहीं दी बल्कि विधा का प्रसार ही वहा से होता है और भगवान चित्रगुप्त जी ने इसका प्रसार किया जबकि मर्यादा पुरुषोत्तम और योगिराज श्री कृष्ण जी ने अपने अपने गुरुओं से हर तरह की विधा पार्इ।

पांचवी विशेषता जो आपकी नजर के सामने है कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम और योगिराज कृष्ण को अन्तध्र्यान होना पड़ा जब कि भगवान चित्रगुप्त जी के अन्तध्र्यान होने का सवाल ही नहीं उठता। वह जब से प्रकट हुए हैं आज तक हैं और सदा रहेंगे, यदि वे अन्तध्र्यान हो गये तो प्रलय हो जायेगी। यह संसार ही नहीं रहेगा।

वह महान प्रशासक, समाज रक्षक ब्रह्रा और क्षात्र धर्म के ज्ञाता तथा न्यायमूर्ति थे, उनमें चूकि ब्राह्रा और क्षात्र धर्म की झलकिया समन्वित रुप में पार्इ जाती हैं इसलिए उनको श्याम वर्ण कहा जाता है। श्याम वर्ण हम उसी को कह सकते हैं जिनमें ब्रह्राणत्व और क्षत्रित्व का समन्वय पाया जाय और इसीलिए हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम और योगिराज कृष्ण को भी श्यामवर्ण कहते हैं।

भगवान चित्रगुप्त जी ने प्रादुर्भाव के बाद कुछ दिन अवंतिकापुर (उज्जैन) में रह कर संसारी संविधान का निर्णय किया। ऐसा करना उनके लिए नितांत आवश्यक था क्योंकि उनका प्रादुभाव ही धर्म और अधर्म के न्याय करने के हेतु हुआ था। कुछ समय पश्चात जब ब्रह्राजी ने अपनी ज्ञानेंद्रियों द्वारा जान लिया कि विधान तैयार हो गया है और उसकी व्यवस्था भी सुवण है तब ब्रह्राजी ने सब देवताओं और ऋषियों के साथ अवंतिकापुर में पहुच कर एक बड़ा यज्ञ किया। उसी यज्ञ के समय सूर्यदेव ने भगवान शिव के कहने से सुशर्मा (धर्मशर्मा) की कन्या जिसका नाम इरावती (शोभावती) था जो सूर्यदेव के पास ऋषि छोड़ आये थे तथा अपनी पौत्री श्राद्वदेव मनु की पुत्री जिसका नाम दक्षिणा (ननिदनी) था, दोनों का विवाह भगवान चित्रगुप्त जी से कर दिया। श्री ब्रह्रा जी ने सभी देवताओं के साथ उस विधान को ग्रहण किया जो भगवान चित्रगुप्त जी ने बनाया था तथा वह सारी व्यवस्था मान ली गर्इ जो उनके द्वारा धर्म और अधर्म के निर्णय हेतु की गर्इ थी। सबने मिल कर श्री चित्रगुप्त जी को वरदान दिये कि उनके वाक्य अजर और अमर हों, उनका न्याय अटल हो और उनकी वाणी तथा आदेश हर एक को मान्य होंगे। यज्ञ की समाप्ति पर सभी देवता तथा ऋषि अपने अपने स्थान को चले गये।

भगवान चित्रगुप्त जी की व्यवस्था के अनुसार ब्रह्रा जी को प्राणियों की उत्पत्ति या पैदा करने का कार्य सोंपा गया, विष्णु जी को उन प्राणियों के पालन-पोषण का कार्य सोंपा गया और शिवशंकर भोलेनाथ को मृत्यु या संहार का कार्य सोंपा गया।

हमारा जन्म अपने पिछले जन्म के कर्मो के ऊपर निर्भर है और इसी के आधार पर होगा। भगवान चित्रगुप्त ही हर एक जीव के चित्र में गुप्त रुप से रहकर उसके कर्मो का लेखा-जोखा करते हैं और मरने के बाद उस प्राणी से उसके पापों का जवाब तलब करते हैं, उनके लिखने के अनुसार ही हमारा जन्म तिल भर इधर-उधर नहीं हो सकता। इसलिए भगवान चित्रगुप्त जी जब ब्रह्रा को अपना आदेश देते हैं कि अमुक प्राणी का जन्म कुत्ते का होगा और अमुक प्राणी फकीर के घर पैदा होगा तथा अमुक प्राणी बैल बन कर बोझा ढोयेगा, तो ब्रह्रा जी प्राणीयों का जन्म उसी आदेशानुसार देते हैं। वह अपने कार्य में स्वतंत्र नहीं है और जब तक भगवान चित्रगुप्त जी उस प्राणी को ब्रह्रा जी के पास जन्म के लिए न भेजें उस समय तक उसका जन्म नहीं होगा।

इसी तरह विष्णु जी भी जब हम लोगों को खाने को देते हैं या पालते हैं तो भगवान चित्रगुप्त जी के आदेश की प्रतीक्षा करते हैं और जिस प्रकार भगवान चित्रगुप्त जी हमारे कर्म में लिख देते हैं उसी के अनुसार वे हमको सूखी रोटी या दूध मलार्इ अथवा और भी अनेकों प्रकार के व्यंजन दे सकते हैं और यदि हमारे कर्म में हमकों फांका ही लिखा है या भूखा ही रहना है तो विष्णु जी हम पर तरस खाने के बाद भी हमारी कोर्इ सहायता नहीं कर सकते क्योंकि वे अपने कार्य में स्वतन्त्र नहीं और विधान के अन्तर्गत अपना कार्य करते हैं तथा जिस प्रकार भगवान चित्रगुप्त हमारी जीविका निर्धारित कर देते हैं उसी आदेशानुसार श्री विष्णु जी हमारा पालन-पोषण करते हैं।

भगवान शिव चित्रगुप्त जी के आदेशानुसार संहार कार्य करते हैं। जिस तरह जिसके कर्म में मृत्यु लिखी है उसी तरह उसको प्राप्त होती है। कोर्इ रेल दुर्घटना में अपने प्राणों को गंवाता है किसी की हृदय गति रुक जाती है, कोर्इ ठोकर खाकर ही मर जाता है, कोर्इ महीनों खाट पर पड़ा-पड़ा सड़ता रहता है और लोग प्रार्थना करते हैं कि इसके प्राण जल्दि निकल जायें। भगवान शिव को यदि उस प्राणी पर तरस भी आ जाये तो उसके प्राण बिना चित्रगुप्त जी की आज्ञा के नहीं निकल सकते क्योंकि कार्य में स्वतन्त्र नहीं हैं।

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श्री चित्रगुप्त महाराज की कथा https://blog.kayasthvivaah.com/2021/04/02/%e0%a4%b6%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%9a%e0%a4%bf%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%97%e0%a5%81%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%a4-%e0%a4%ae%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%9c-%e0%a4%95/ https://blog.kayasthvivaah.com/2021/04/02/%e0%a4%b6%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%9a%e0%a4%bf%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%97%e0%a5%81%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%a4-%e0%a4%ae%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%9c-%e0%a4%95/#respond Fri, 02 Apr 2021 12:07:37 +0000 https://blog.kayasthvivaah.com/?p=2231 श्री चित्रगुप्त महाराज की कथा Read More »

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पितामह भीष्म से युधिष्ठर जी बोले आपकी कृपा से मैंने धर्मशास्त्र सुने। ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और विशेषकर शूद्रों के सब धर्म आपने कहे। तीर्थ यात्रा विधि कही तथा मास नक्षत्र, तिथि वारों के जो व्रत आपने कहे उनमें यम दिव्तीया का क्या पुण्य है? और यह व्रत किस समय कैसे हो, यह मैं आपसे सुनना चाहता हूँ।

भीष्म जी बोले, हे युधिष्ठर, यह तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है। अत: मैं तुमसे यह कहूंगा। विस्तारपूर्वक धर्मराज जी की यम दिव्तीया को सुनो। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष तथा चैत्रमास की कृष्ण पक्ष की दिव्तीया यम दिव्तीया होती है।

युधिष्ठरजी बोले, कार्तिक एवं चैत्र मास की यम दिव्तीया में किसका पूजन करना चाहिए और कैसे करना चाहिए ?

भीष्मजी बोले, मैं तुम्हें वह पौराणिक उत्तम कथा कहता हूँ जिसके सुनने मात्र से मनुष्य सभी पापों से छूट जाता है इसमें संशय नहीं है। अगले सतयुग में जिनकी नाभि में कमल है उन भगवान से चार मुख वाले ब्रहमाजी उत्पन्न हुए जिन्हें भगवान ने चारों वेद कहे।

पदमनाभि नारायण बोले, हे ब्रहमाजी आप सम्पूर्ण स्रष्टि को उत्पन्न करने वाले, सब योनियों की गति हो। अत: मेरी आज्ञा से सम्पूर्ण जगत को शीघ्र रचो। हे राजन, श्री हरि के इन वचनों को सुन ब्रहमाजी ने प्रफुल्लित होकर मुख से ब्राहमणों को, भुजाओं से क्षत्रियों को, जंघाओं से वैश्यों को तथा पैरों से शूद्रों का उत्पन्न किया। इसके बाद देव, गन्धर्व, दानव और राक्षस पैदा किये। पिशाच, सर्प, नाग, जल के जीव, स्थल के जीव, नदी-पर्वत और वृक्ष आदि को पैदा कर मनुजी को उत्पन्न किया। तत्पश्चात दक्ष प्रजापतिजी को पैदा कर उनसे आगे की स्रष्टि उत्पन्न करने को कहा। दक्ष प्रजापतिजी से साठ कन्यायें उत्पन्न हुर्इं जिनमें से 10 धर्मराज जी को, 13 कश्यप जी को और 27 चन्द्रमा जी को दीं। कश्यप जी से देव, दानव और राक्षस पैदा हुये तथा गन्धर्व, पिशाच, गौ और पक्षियों की जात पैदा होकर अपने-अपने अधिकारों पर स्थिर हुर्इ। धर्मराज जी ने ब्रहमा जी से आकर कहा – हे प्रभो! आपने मुझे लोकों के अधिकार दिये हैं किन्तु सहायक के बिना मैं वहा कैसे ठहर सकता हूँ ।

ब्रहमा जी बोले, हे धर्मराज मैं तुम्हारे अधिकारों में सहायता करुंगा। इतना कह ब्रहमाजी को छोड़ ध्यान में लगे तथा देवताओं की हजार वर्ष तक तपस्या की। तपस्या के बाद श्याम रंग, कमल लोचन, कबूतर की सी गर्दन वाले, गूढ शिर तथा चन्द्रमा के समान मुख वाले, कलम-दवात और हाथ में पाटी लिये पुरुष को, अपने सामने देखकर ब्रहमाजी बोले, हे पुरुष तुम मेरी काया से उत्पन्न हुये हो, अत: तुम कायस्थ कहलाओगे एवं गुप्त रुप से मेरे शरीर में छुपे होने के कारण तुम्हारा नाम चित्रगुप्त रहेगा।

तत्पश्चात चित्रगुप्त जी कोटिनगर जाकर चण्डीपूजा में लग गये। उपवास कर उन्होंने चण्डीकाजी की भावना अपने हृदय में की। परम समाधि से उन्होंने ज्वालामुखी देवी जी का जप और स्त्रोतों से भजन-पूजन कर उपासना और स्तुति की। उपासना से प्रसन्न होकर देवीजी ने चित्रगुप्तजी को वर दिया – हे पुत्र तुमने मेरा आराधन, पूजन किया इसलिये आज मैंने तुम्हें तीन वर दिये। तुम परोपकार में कुशल, अपने अधिकार में सदा स्थिर और असीम आयु वाले हेावोगे। ये तीन वर देकर देवी अन्त्रध्यान हो गर्इ।

उस समय पृथ्वी पर सौराष्ट्र नगर में एक राजा था, जिसका नाम सौदास था। वह महापापी, पराये माल को चुराने वाला, परार्इ स्त्रियो पर बुरी नजर रखने वाला, महाभिमानी और पाप करने वाला था। हे राजन उसने जन्म से लेकर थोड़ा सा भी धर्म नहीं किया। एक बार वह राजा अपनी सेना के साथ बहुत से हिरणों वाले जंगल में शिकार करने गया, वहा उसने निरंतर व्रत करने वाले एक ब्राहमण को देखा। वह ब्राहमण चित्रगुप्तजी और यमराज जी की पूजा कर रहा था। वह यमदिव्तीया का दिन था। राजा ने ब्राहमण से पूछा – महाराज आप क्या कर रहे हो? ब्राहमण ने यम दिव्तीया के व्रत को जिसे वह कर रहा था, कह सुनाया। सुनकर राजा ने वहीं उसी दिन कार्तिक मास में व्रत किया।

कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की दिव्तीया के दिन धूप तथा दीपादि सामग्री से चित्रगुप्त जी के साथ धर्मराज जी का पूजन किया। व्रत करने के बाद राजा धन सम्पतित से युक्त अपने घर आया। कुछ दिन उसके मन का विस्मरण हुआ और वह व्रत भूल गया, याद आने पर फिर व्रत किया। तत्पश्चात काल संजोग से वह राजा सौदास मर गया और यमदूतों ने द्रढ़ता से उसे बांध कर यमराज जी के पास पहुँचाया। यमराज जी ने रुंधे मन से उसे अपने दूतों से पिटता देख चित्रगुप्त जी से पूछा कि इस राजा ने क्या किया? जो भी अच्छा या बुरा इसने किया हो मुझे बताओ। धर्मराज के ये वचन सुनकर चित्रगुप्तजी बोले, इसने बहुत से खोटे कर्म किये हैं, कभी देवयोग से एक व्रत किया जो कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की यम दिव्तीया नाम की दिव्तीया होती है, उस दिन आपका और मेरा चन्दन, फूल आदि सामग्री से एक बार भोजन के नियम से और रात्रि जागरण कर पूजन किया। हे देव, इस विधि से राजा ने व्रत किया इससे यह राजा नरक में डालने योग्य नहीं है।

तत्पश्चात चित्रगुप्तजी धर्मराज जी के संग गये और वे आराधना करने योग्य अपने अधिकार पर स्थिर हुए। उस समय ऋषियों में उत्तम सुशर्मा ऋषि ने, जिनको संतान की चाह ना थी, ब्रहमा जी की अराधना की और उनकी प्रसन्नता से इरावती कन्या को पाकर चित्रगुप्तजी के लिए दी। उसी समय चित्रगुप्त जी से उसका विवाह किया। उस कन्या से चित्रगुप्तजी के संग आठ पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके नाम चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु, अरुण तथा आठवां अतीन्द्रिय है।

दूसरी जो मनु की कन्या दक्षिणा विवाही गयी, उससे चार पुत्र हुये जिनके नाम भानु, विभानु, विश्वभानु और वीर्यवान हैं। चित्रगुप्तजी के ये बारह पुत्र पृथ्वी पर फैले। चारु मथुराजी को गए और माथुर कहलाये। सुचारु गौड़ देश को गये इससे वे गौड़ कहलाये। चित्र भटट नदी को गये इससे वे भटनागर कहलाये। भानु श्रीनिवास नगर गये इससे वे श्रीवास्तव हुये। हिमवान अम्बा जी की आराधना कर अम्बा नगर गये जिससे वह अम्बष्ठ हुये, मतिमान अपनी भार्या के साथ सखसेन नगर गये, इससे वे सक्सेना कहलाए। सूरसेन नगर को विभानु गये जिससे वे सूरजध्वज कहलाये। उनकी और भी संताने अनेकानेक स्थानों पर जाकर वसी तथा अनेक उप जाति कहलाये।

चित्रगुप्त का यह वचन सुनकर धर्मराजजी ने उसे छुड़ा दिया। इस यम दिव्तीया के व्रत से वह उत्तम गति को प्राप्त हुआ।

पितामह भीष्म से युधिष्ठर जी बोले आपकी कृपा से मैंने धर्मशास्त्र सुने। ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और विशेषकर शूद्रों के सब धर्म आपने कहे। तीर्थ यात्रा विधि कही तथा मास नक्षत्र, तिथि वारों के जो व्रत आपने कहे उनमें यम दिव्तीया का क्या पुण्य है? और यह व्रत किस समय कैसे हो, यह मैं आपसे सुनना चाहता हूँ। भीष्म जी बोले, हे युधिष्ठर, यह तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है। अत: मैं तुमसे यह कहूंगा। विस्तारपूर्वक धर्मराज जी की यम दिव्तीया को सुनो। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष तथा चैत्रमास की कृष्ण पक्ष की दिव्तीया यम दिव्तीया होती है। युधिष्ठरजी बोले, कार्तिक एवं चैत्र मास की यम दिव्तीया में किसका पूजन करना चाहिए और कैसे करना चाहिए ? भीष्मजी बोले, मैं तुम्हें वह पौराणिक उत्तम कथा कहता हूँ जिसके सुनने मात्र से मनुष्य सभी पापों से छूट जाता है इसमें संशय नहीं है। अगले सतयुग में जिनकी नाभि में कमल है उन भगवान से चार मुख वाले ब्रहमाजी उत्पन्न हुए जिन्हें भगवान ने चारों वेद कहे। पदमनाभि नारायण बोले, हे ब्रहमाजी आप सम्पूर्ण स्रष्टि को उत्पन्न करने वाले, सब योनियों की गति हो। अत: मेरी आज्ञा से सम्पूर्ण जगत को शीघ्र रचो। हे राजन, श्री हरि के इन वचनों को सुन ब्रहमाजी ने प्रफुल्लित होकर मुख से ब्राहमणों को, भुजाओं से क्षत्रियों को, जंघाओं से वैश्यों को तथा पैरों से शूद्रों का उत्पन्न किया। इसके बाद देव, गन्धर्व, दानव और राक्षस पैदा किये। पिशाच, सर्प, नाग, जल के जीव, स्थल के जीव, नदी-पर्वत और वृक्ष आदि को पैदा कर मनुजी को उत्पन्न किया। तत्पश्चात दक्ष प्रजापतिजी को पैदा कर उनसे आगे की स्रष्टि उत्पन्न करने को कहा। दक्ष प्रजापतिजी से साठ कन्यायें उत्पन्न हुर्इं जिनमें से 10 धर्मराज जी को, 13 कश्यप जी को और 27 चन्द्रमा जी को दीं। कश्यप जी से देव, दानव और राक्षस पैदा हुये तथा गन्धर्व, पिशाच, गौ और पक्षियों की जात पैदा होकर अपने-अपने अधिकारों पर स्थिर हुर्इ। धर्मराज जी ने ब्रहमा जी से आकर कहा – हे प्रभो! आपने मुझे लोकों के अधिकार दिये हैं किन्तु सहायक के बिना मैं वहा कैसे ठहर सकता हूँ । ब्रहमा जी बोले, हे धर्मराज मैं तुम्हारे अधिकारों में सहायता करुंगा। इतना कह ब्रहमाजी को छोड़ ध्यान में लगे तथा देवताओं की हजार वर्ष तक तपस्या की। तपस्या के बाद श्याम रंग, कमल लोचन, कबूतर की सी गर्दन वाले, गूढ शिर तथा चन्द्रमा के समान मुख वाले, कलम-दवात और हाथ में पाटी लिये पुरुष को, अपने सामने देखकर ब्रहमाजी बोले, हे पुरुष तुम मेरी काया से उत्पन्न हुये हो, अत: तुम कायस्थ कहलाओगे एवं गुप्त रुप से मेरे शरीर में छुपे होने के कारण तुम्हारा नाम चित्रगुप्त रहेगा। तत्पश्चात चित्रगुप्त जी कोटिनगर जाकर चण्डीपूजा में लग गये। उपवास कर उन्होंने चण्डीकाजी की भावना अपने हृदय में की। परम समाधि से उन्होंने ज्वालामुखी देवी जी का जप और स्त्रोतों से भजन-पूजन कर उपासना और स्तुति की।

उपासना से प्रसन्न होकर देवीजी ने चित्रगुप्तजी को वर दिया – हे पुत्र तुमने मेरा आराधन, पूजन किया इसलिये आज मैंने तुम्हें तीन वर दिये। तुम परोपकार में कुशल, अपने अधिकार में सदा स्थिर और असीम आयु वाले हेावोगे। ये तीन वर देकर देवी अन्त्रध्यान हो गर्इ। तत्पश्चात चित्रगुप्तजी धर्मराज जी के संग गये और वे आराधना करने योग्य अपने अधिकार पर स्थिर हुए। उस समय ऋषियों में उत्तम सुशर्मा ऋषि ने, जिनको संतान की चाह ना थी, ब्रहमा जी की अराधना की और उनकी प्रसन्नता से इरावती कन्या को पाकर चित्रगुप्तजी के लिए दी। उसी समय चित्रगुप्त जी से उसका विवाह किया। उस कन्या से चित्रगुप्तजी के संग आठ पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके नाम चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु, अरुण तथा आठवां अतीन्द्रिय है। दूसरी जो मनु की कन्या दक्षिणा विवाही गयी, उससे चार पुत्र हुये जिनके नाम भानु, विभानु, विश्वभानु और वीर्यवान हैं। चित्रगुप्तजी के ये बारह पुत्र पृथ्वी पर फैले। चारु मथुराजी को गए और माथुर कहलाये। सुचारु गौड़ देश को गये इससे वे गौड़ कहलाये। चित्र भटट नदी को गये इससे वे भटनागर कहलाये।
भानु श्रीनिवास नगर गये इससे वे श्रीवास्तव हुये। हिमवान अम्बा जी की आराधना कर अम्बा नगर गये जिससे वह अम्बष्ठ हुये, मतिमान अपनी भार्या के साथ सखसेन नगर गये, इससे वे सक्सेना कहलाए। सूरसेन नगर को विभानु गये जिससे वे सूरजध्वज कहलाये। उनकी और भी संताने अनेकानेक स्थानों पर जाकर वसी तथा अनेक उप जाति कहलाये। उस समय पृथ्वी पर सौराष्ट्र नगर में एक राजा था, जिसका नाम सौदास था। वह महापापी, पराये माल को चुराने वाला, परार्इ स्त्रियो पर बुरी नजर रखने वाला, महाभिमानी और पाप करने वाला था। हे राजन उसने जन्म से लेकर थोड़ा सा भी धर्म नहीं किया। एक बार वह राजा अपनी सेना के साथ बहुत से हिरणों वाले जंगल में शिकार करने गया, वहा उसने निरंतर व्रत करने वाले एक ब्राहमण को देखा। वह ब्राहमण चित्रगुप्तजी और यमराज जी की पूजा कर रहा था। वह यमदिव्तीया का दिन था। राजा ने ब्राहमण से पूछा – महाराज आप क्या कर रहे हो? ब्राहमण ने यम दिव्तीया के व्रत को जिसे वह कर रहा था, कह सुनाया। सुनकर राजा ने वहीं उसी दिन कार्तिक मास में व्रत किया। कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की दिव्तीया के दिन धूप तथा दीपादि सामग्री से चित्रगुप्त जी के साथ धर्मराज जी का पूजन किया। व्रत करने के बाद राजा धन सम्पतित से युक्त अपने घर आया। कुछ दिन उसके मन का विस्मरण हुआ और वह व्रत भूल गया, याद आने पर फिर व्रत किया। तत्पश्चात काल संजोग से वह राजा सौदास मर गया और यमदूतों ने द्रढ़ता से उसे बांध कर यमराज जी के पास पहुँचाया। यमराज जी ने रुंधे मन से उसे अपने दूतों से पिटता देख चित्रगुप्त जी से पूछा कि इस राजा ने क्या किया? जो भी अच्छा या बुरा इसने किया हो मुझे बताओ।
धर्मराज के ये वचन सुनकर चित्रगुप्तजी बोले, इसने बहुत से खोटे कर्म किये हैं, कभी देवयोग से एक व्रत किया जो कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की यम दिव्तीया नाम की दिव्तीया होती है, उस दिन आपका और मेरा चन्दन, फूल आदि सामग्री से एक बार भोजन के नियम से और रात्रि जागरण कर पूजन किया। हे देव, इस विधि से राजा ने व्रत किया इससे यह राजा नरक में डालने योग्य नहीं है। चित्रगुप्त का यह वचन सुनकर धर्मराजजी ने उसे छुड़ा दिया। इस यम दिव्तीया के व्रत से वह उत्तम गति को प्राप्त हुआ। बोलिए भगवान चित्रगुप्त महाराज जी की जय।
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बिहारी कायस्थ और उनका योगदान https://blog.kayasthvivaah.com/2021/04/02/%e0%a4%ac%e0%a4%bf%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a5-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%89%e0%a4%a8%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%97/ https://blog.kayasthvivaah.com/2021/04/02/%e0%a4%ac%e0%a4%bf%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a5-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%89%e0%a4%a8%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%97/#respond Fri, 02 Apr 2021 12:05:51 +0000 https://blog.kayasthvivaah.com/?p=2222 बिहारी कायस्थ और उनका योगदान Read More »

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कायस्थों की उत्पत्ति के विषय में अनेकों लेख प्रकाशित हो चुके हैं तथा पौराणिक व ऐतिहासिक दोनों ही द्रष्टियों से वे उच्च वर्ग के अन्तर्गत माने गये हैं। देश के अन्य भू-भागों की भांति बिहार में भी इनका इतिहास काफी पुराना है। याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार वे र्इसापूर्व तीसरी शताब्दी में ही अपना विशिष्ट स्थान बना चुके थे। नंदवंश के राज्य में मंत्री शकटार कायस्थ थे। उनके पुत्र स्थूलभद्र जैन मुनि बन गये तथा श्री चक्र ने मंत्री पद सुशोभित किया। मुद्राराक्षस एवं मृच्छकटिक ग्रन्थों में भी कायस्थों का उल्लेख मिलता है। राजतंत्र में फेर बदल के फलस्वरुप उनका स्वरुप बदलता रहा, किन्तु गुप्तकाल में उनको पुन: विशिष्ट जाति का दर्जा मिला कुछ कायस्थों की सुकीर्ति तो ऐसी उभरी कि वे कालजयी हो गये। आर्यभटट (476) र्इ0 इनमें प्रमुख है। वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने प्रमाणित किया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर सूर्य की परिक्रमा करती है जिसके फलस्वरुप दिन-रात तथा समय-समय पर ग्रहण होते है। उन्होंने ‘आर्यभटटतंत्र’ तथा ‘आर्य भटीय’ की रचना संस्कृत भाषा में की। भारत सरकार ने इसी वि़द्वान के नाम पर प्रथम उपग्रह का नाम ‘आर्यभटट’ रखा।

हर्ष वर्धन (606-646 र्इ0) के समय में वाणभटट हुये। इनके ग्रन्थ ‘हर्षचरित’ एवं ‘कादम्बरी’ काव्य साहित्य तथा ऐतिहासिक द्रष्टि से काफी महत्वपूर्ण माने जाते हैं। पूर्वी भारतीय भाषाओं के जनक के रुप में सिद्धो का विशेष योगदान रहा। इनमें लुइया (830 र्इ0) तथा कण्हपा (840 र्इ0) कायस्थ थे। सातवीं शताब्दी में नालन्दा एशिया का सर्वश्रेष्ठ विश्वविधालय था। यहा के ख्याति प्राप्त आचार्यों में नामार्जुन जन्मजा कायस्थ थे। मिथिला में जब कर्णाट वंश के नान्यदेव ने शासन चलाया तो इनके साथ कायस्थ श्रीधर मंत्री के रुप में आये। इसी वंश के शासन काल (1097-1147 र्इ0) के बीच लक्ष्मीधर राजा गोविन्द चन्द्र देव के संधि विग्रह मंत्री थे। उन्होंने विधि की प्रसिद्ध पुस्तक ‘कृत्य कल्प तरु’ की रचना की तथा इसी के आधार पर मिथिला का राज्य शासन चलता रहा। राजा अंगदेव ने प्रत्येक परगने में समाहर्ता नियुक्त किये जिन्हें चौधरी की उपाधि दी गर्इ। यह कायस्थ थे और मिथिला में आज भी कायस्थों की उपाधि चौधरी है।

मुगलकाल में कायस्थों का विशेष उल्लेख नहीं मिलता। अंग्रेजों के बिहार में आगमन से कायस्थ पुन: प्रकाश में आने लगे। सुलेख तथा अच्छे भाषा ज्ञान के आधार पर वे भाषा मुंशी के पद पर नियुक्त हुये और कालान्तर में मुंशी कहलाने लगे। प्रशासन में वे रीढ़ की हडडी के समान महत्वपूर्ण थं। कुछेक कायस्थ बन्धुओं ने धर्म-संस्कृति आदि के क्षेत्र में भी अपनी पहचान बनार्इ। ऐसे ही एक सन्त मंगनीराम (1943 र्इ0) हुये जिनका ‘रामसिन्धु’ (883 पृ0) सन्तमत की ज्ञानाश्रयी शाखा का प्रमुख ग्रंथ है। 1953 र्इ0 में सारण जिलान्तर्गत चित्रांश परिवार में निगुर्णिया सन्त श्री धरम दास हुये। आपके ग्रन्थ ”प्रेम प्रकाश’ व ‘सत्य प्रकाश’ निर्गुण शाखा की अनमोल पूंजी है। इसी प्रखण्ड में भक्तकवि हलधर दास (1958 र्इ0) हुये। शीतला के प्रकोप से यह द्रष्टि विहीन हो गये, फिर भी इन्होंने ‘सुदामा चरित’ की रचना की जो कृष्ण भक्ति काव्य का एक अनुपम ग्रन्थ है।

स्वतन्त्रता संग्राम की पहली लड़ार्इ (1857 र्इ0) से यह सिद्ध हो गया कि अंग्रेज वास्तव में भारतीयों के शत्रु थे। अत: विभिन्न स्तरों पर उनके विरोध में आन्दोलन और प्रचार भी होने लगा। अपनी रचनाओं द्वारा देश भक्ति जाग्रत करने में सारण जिले के रघुवीर नारायण जी का विशेष योगदान रहा। गाधी जी की दाण्डी यात्रा में श्री गिरवर धर चौधरी निरन्तर उनके साथ रहे। स्वाधीनता संग्राम में जिन कायस्थ बन्धुओं ने अपना योगदान दिया उनमें देशरत्न डा0 राजेन्द्र प्रसाद, सच्चिदानन्द सिन्हा तथा महेश नारायण विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। डा0 राजेन्द्र प्रसाद तो बाद में देश के प्रथम राष्ट्रपति हुये। अन्य दोनों चित्रांश बन्धुओं के सफल आन्दोलन के फलस्वरुप 1912 र्इ0 में पृथक बिहार प्रान्त का निर्माण हुआ। आजादी की लड़ार्इ में लोक नायक जय प्रकाश नारायण के योगदान को तो हम भूल ही नहीं सकते। बिहार में कायस्थों की विशिष्ट स्थिति रही हैं। प्रशासन से जुड़े रहकर भी वे अपनी अलग पहचान बनाये रखने में सफल रहे। यह विशिष्टता प्रमुखत: शिक्षा के कारण बनी। अंग्रेजों के शासन काल में तो कायस्थ बन्धुओं की पुलिस विभाग, शिक्षा विभाग, काननगो, आबकारी, मुंसिफी आदि में काफी संख्या थी, जो कालान्तर में विषम परिस्थितियों के कारण कुछ घटने लगी। फिर भी लगभग प्रत्येक क्षेत्र में वे अपनी पहचान बनाये रखने में सफल रहे हैं।

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चित्रगुप्त के पुत्र एवं नागवंश का सम्बन्ध https://blog.kayasthvivaah.com/2021/04/02/%e0%a4%9a%e0%a4%bf%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%97%e0%a5%81%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%a4-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%aa%e0%a5%81%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0-%e0%a4%8f%e0%a4%b5%e0%a4%82-%e0%a4%a8/ https://blog.kayasthvivaah.com/2021/04/02/%e0%a4%9a%e0%a4%bf%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%97%e0%a5%81%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%a4-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%aa%e0%a5%81%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0-%e0%a4%8f%e0%a4%b5%e0%a4%82-%e0%a4%a8/#respond Fri, 02 Apr 2021 12:01:27 +0000 https://blog.kayasthvivaah.com/?p=2220 चित्रगुप्त के पुत्र एवं नागवंश का सम्बन्ध Read More »

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भगवान चित्रगुप्त की दो शादियाँ हुईं,जिनसे 12 पुत्र थे और पुत्रों का विवाह नागराज बासुकी की बारह कन्याओं से सम्पन्न हुआ, जिससे कि कायस्थों की ननिहाल नागवंश मानी जाती है,उनकी

पहली पत्नी सूर्यदक्षिणा/नंदनी जो ब्राह्मण कन्या थी, इनसे 4 पुत्र हुए जो भानू, विभानू, विश्वभानू और वीर्यभानू कहलाए।

दूसरी पत्नी एरावती/शोभावति नागवन्शी क्षत्रिय कन्या थी, इनसे 8 पुत्र हुए जो चारु, चितचारु, मतिभान, सुचारु, चारुण, हिमवान, चित्र,और अतिन्द्रिय कहलाए।

 जिसका उल्लेख अहिल्या, कामधेनु, धर्मशास्त्र एवं पुराणों में भी दिया गया है | श्री चित्रगुप्तज के बारह पुत्रों का विवाह नागराज बासुकी की बारह कन्याओं से सम्पन्न हुआ, जिससे कि कायस्थों की ननिहाल नागवंश मानी जाती है और नागपंचमी के दिन नाग पूजा की जाती है | माता सूर्यदक्षिणा / नंदिनी ( श्राद्धदेव की कन्या ) के चार पुत्र काश्मीर के आस -पास जाकर बसे तथा ऐरावती / शोभावति के आठ पुत्र गौड़ देश के आसपास बिहार, उड़ीसा, तथा बंगाल में जा बसे | बंगाल उस समय गौड़ देश कहलाता था, पद्म पुराण में इसका उल्लेख किया गया है |

माता सूर्यदक्षिणा / नंदिनी के पुत्रों का विवरण

1 – भानु ( श्रीवास्तव ) – उनका राशि नाम धर्मध्वज था | चित्रगुप्त जी ने श्री श्रीभानु को श्रीवास (श्रीनगर) और कान्धार के इलाके में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था| उनका विवाह नागराज वासुकी की पुत्री पद्मिनी से हुआ | उस विवाह से श्री देवदत्त और श्री घनश्याम नामक दो दिव्य पुत्रों की उत्पत्ति हुई | श्री देवदत्त को कश्मीर का एवं श्री घनश्याम को सिन्धु नदी के तट का राज्य मिला | श्रीवास्तव 2 वर्गों में विभाजित हैं यथा खर एवं दूसर| कुछ अल इस प्रकार हैं – वर्मा, सिन्हा, अघोरी, पडे, पांडिया,रायजादा, कानूनगो, जगधारी, प्रधान, बोहर, रजा सुरजपुरा,तनद्वा, वैद्य, बरवारिया, चौधरी, रजा संडीला, देवगन इत्यादि|

2 – विभानू (सूर्यध्वज ) – उनका राशि नाम श्यामसुंदर था | उनका विवाह देवी मालती से हुआ | महाराज चित्रगुप्त ने श्री विभानु को काश्मीर के उत्तर क्षेत्रों में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा | चूंकि उनकी माता दक्षिणा सूर्यदेव की पुत्री थीं,तो उनके वंशज सूर्यदेव का चिन्ह अपनी पताका पर लगाये और सूर्यध्व्ज नाम से जाने गए | अंततः वह मगध में आकर बसे|

3 – विश्वभानू ( बाल्मीकि ) – उनका राशि नाम दीनदयाल था और वह देवी शाकम्भरी की आराधना करते थे | महाराज चित्रगुप्त जी ने उनको चित्रकूट और नर्मदा के समीप वाल्मीकि क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था | श्री विश्वभानु का विवाह नागकन्या देवी बिम्ववती से हुआ | यह ज्ञात है की उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा नर्मदा नदी के तट पर तपस्या करते हुए बिताया | इस तपस्या के समय उनका पूर्ण शरीर वाल्मीकि नामक लता से ढका हुआ था | उनके वंशज वाल्मीकि नाम से जाने गए और वल्लभपंथी बने | उनके पुत्र श्री चंद्रकांत गुजरात में जाकर बसे तथा अन्य पुत्र अपने परिवारों के साथ उत्तर भारत में गंगा और हिमालय के समीप प्रवासित हुए | आज वह गुजरात और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं | गुजरात में उनको “वल्लभी कायस्थ” भी कहा जाता है |

4 – वीर्यभानू (अष्ठाना) – उनका राशि नाम माधवराव था और उन्हीं ने देवी सिंघध्वनि से विवाह किया | वे देवी शाकम्भरी की पूजा किया करते थे| महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री वीर्यभानु को आधिस्थान में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा | उनके वंशज अष्ठाना नाम से जाने गए और रामनगर- वाराणसी के महाराज ने उन्हें अपने आठ रत्नों में स्थान दिया | आज अष्ठाना उत्तर प्रदेश के कई जिले और बिहार के सारन, सिवान , चंपारण, मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी,दरभंगा और भागलपुर क्षेत्रों में रहते हैं | मध्य प्रदेश में भी उनकी संख्या ध्यान रखने योग्य है | वह ५ अल में विभाजित हैं |

माता ऐरावती / शोभावति के पुत्रों का विवरण

  1. चारु ( माथुर ) – वह गुरु मथुरे के शिष्य थे | उनका राशि नाम धुरंधर था और उनका विवाह देवी पंकजाक्षी से हुआ | वह देवी दुर्गा की आराधना करते थे | महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री चारू को मथुरा क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था| उनके वंशज माथुर नाम से जाने गाये |उन्होंने राक्षसों (जोकि वेद में विश्वास नहीं रखते थे ) को हराकर मथुरा में राज्य स्थापित किया | इसके पश्चात् उनहोंने आर्यावर्त के अन्य हिस्सों में भी अपने राज्य का विस्तार किया | माथुरों ने मथुरा पर राज्य करने वाले सूर्यवंशी राजाओं जैसे इक्ष्वाकु, रघु, दशरथ और राम के दरबार में भी कई पद ग्रहण किये | माथुर 3 वर्गों में विभाजित हैं यथा देहलवी,खचौली एवं गुजरात के कच्छी | उनके बीच 84 अल हैं| कुछ अल इस प्रकार हैं- कटारिया, सहरिया, ककरानिया, दवारिया,दिल्वारिया, तावाकले, राजौरिया, नाग, गलगोटिया, सर्वारिया,रानोरिया इत्यादि| इटावा के मदनलाल तिवारी द्वारा लिखित मदन कोश के अनुसार माथुरों ने पांड्या राज्य की स्थापना की जो की आज के समय में मदुरै, त्रिनिवेल्ली जैसे क्षेत्रों में फैला था| माथुरों के दूत रोम के ऑगस्टस कैसर के दरबार में भी गए थे |
  • सुचारु ( गौड़) – वह गुरु वशिष्ठ के शिष्य थे और उनका राशि नाम धर्मदत्त था | वह देवी शाकम्बरी की आराधना करते थे | महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री सुचारू को गौड़ क्षेत्र में राज्य स्थापित करने भेजा था | श्री सुचारू का विवाह नागराज वासुकी की पुत्री देवी मंधिया से हुआ | गौड़ 5 वर्गों में विभाजित हैं : 1. खरे 2. दुसरे 3. बंगाली 4. देहलवी 5. वदनयुनि | गौड़ कायस्थ को 32 अल में बांटा गया है |गौड़ कायस्थों में महाभारत के भगदत्त और कलिंग के रुद्रदत्त प्रसिद्द हैं |

3- चित्र ( चित्राख्य ) ( भटनागर ) – वह गुरू भट के शिष्य थे |उनका विवाह देवी भद्रकालिनी से हुआ था | वह देवी जयंती की अराधना करते थे | महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री चित्राक्ष को भट देश और मालवा में भट नदी के तट पर राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था | उन्होंने चित्तौड़ एवं चित्रकूट की स्थापना की और वहीं बस गए | उनके वंशज भटनागर के नाम से जाने गए | भटनागर 84 अल में विभाजित हैं | कुछ अल इस प्रकार हैं- दासनिया, भतनिया, कुचानिया, गुजरिया,बहलिवाल, महिवाल, सम्भाल्वेद, बरसानिया, कन्मौजिया इत्यादि| भटनागर उत्तर भारत में कायस्थों के बीच एक आम उपनाम है |

4– मतिभान ( हस्तीवर्ण ) ( सक्सेना ) – माता शोभावती (इरावती) के तेजस्वी पुत्र का विवाह देवी कोकलेश से हुआ | वे देवी शाकम्भरी की पूजा करते थे | चित्रगुप्त जी ने श्री मतिमान को शक् इलाके में राज्य स्थापित करने भेजा | उनके पुत्र एक महान योद्धा थे और उन्होंने आधुनिक काल के कान्धार और यूरेशिया भूखंडों पर अपना राज्य स्थापित किया | चूंकि वह शक् थे और शक् साम्राज्य से थे तथा उनकी मित्रता सेन साम्राज्य से थी, तो उनके वंशज शकसेन या सकसेनi कहलाये| आधुनिक इरान का एक भाग उनके राज्य का हिस्सा था| आज वे कन्नौज, पीलीभीत, बदायूं, फर्रुखाबाद, इटाह,इटावाह, मैनपुरी, और अलीगढ में पाए जाते हैं| सक्सेना ‘खरे’ और ‘दूसर’ में विभाजित हैं और इस समुदाय में 106 अल हैं |कुछ अल इस प्रकार हैं- जोहरी, हजेला, अधोलिया, रायजादा, कोदेसिया, कानूनगो,बरतरिया, बिसारिया, प्रधान, कम्थानिया, दरबारी, रावत, सहरिया,दलेला, सोंरेक्षा, कमोजिया, अगोचिया, सिन्हा, मोरिया, इत्यादिकमोजिया, अगोचिया, सिन्हा, मोरिया, इत्यादि|

5- हिमवान (अम्बष्ठ ) – उनका राशि नाम सरंधर था और उनका विवाह देवी भुजंगाक्षी से हुआ | वह देवी अम्बा माता की अराधना करते थे | गिरनार और काठियवार के अम्बा-स्थान नामक क्षेत्र में बसने के कारण उनका नाम अम्बष्ट पड़ा | श्री हिमवान की पांच दिव्य संतानें हुईं : श्री नागसेन , श्री गयासेन, श्री गयादत्त, श्री रतनमूल और श्री देवधर | ये पाँचों पुत्र विभिन्न स्थानों में जाकर बसे और इन स्थानों पर अपने वंश को आगे बढ़ाया | इनका विभाजन : नागसेन २४ अल , गयासेन ३५ अल, गयादत्त ८५ अल,रतनमूल २५ अल, देवधर २१ अल में है | अंततः वह पंजाब में जाकर बसे जहाँ उनकी पराजय सिकंदर के सेनापति और उसके बाद चन्द्रगुप्त मौर्य के हाथों हुई| अम्बष्ट कायस्थ बिजातीय विवाह की परंपरा का पालन करते हैं और इसके लिए “खास घर” प्रणाली का उपयोग करते हैं | इन घरों के नाम उपनाम के रूप में भी इस्तेमाल किये जाते हैं | ये “खास घर”(जिनसे मगध राज्य के उन गाँवों का नाम पता चलता है जहाँ मौर्यकाल में तक्षशिला से विस्थापित होने के उपरान्त अम्बष्ट आकर बसे थे) | इनमें से कुछ घरों के नाम हैं- भीलवार, दुमरवे, बधियार, भरथुआर, निमइयार, जमुआर,कतरयार पर्वतियार, मंदिलवार, मैजोरवार, रुखइयार, मलदहियार,नंदकुलियार, गहिलवार, गयावार, बरियार, बरतियार, राजगृहार,देढ़गवे, कोचगवे, चारगवे, विरनवे, संदवार, पंचबरे, सकलदिहार,करपट्ने, पनपट्ने, हरघवे, महथा, जयपुरियार …आदि|

6- चित्रचारु ( निगम) – उनका राशि नाम सुमंत था और उनका विवाह अशगंधमति से हुआ | वह देवी दुर्गा की अराधना करते थे | महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री चित्रचारू को महाकोशल और निगम क्षेत्र(सरयू नदी के तट पर) में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा | उनके वंशज वेदों और शास्त्रों की विधियों में पारंगत थे जिससे उनका नाम निगम पड़ा |आज के समय में कानपुर, फतेहपुर, हमीरपुर, बंदा, जलाओं,महोबा में रहते हैं | वह 43 अल में विभाजित हैं | कुछ अल इस प्रकार हैं- कानूनगो, अकबरपुर, अकबराबादी, घताम्पुरी,चौधरी, कानूनगो बाधा, कानूनगो जयपुर, मुंशी इत्यादि|

7- चित्रचरण (कर्ण ) – उनका राशि नाम दामोदर था एवं उनका विवाह देवी कोकलसुता से हुआ | वह देवी लक्ष्मी की आराधना करते थे और वैष्णव थे | महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री चारूण को कर्ण क्षेत्र (आधुनिक कर्नाटक) में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था | उनके वंशज समय के साथ उत्तरी राज्यों में प्रवासित हुए और आज नेपाल, उड़ीसा एवं बिहार में पाए जाते हैं | उनकी बिहार की शाखा दो भागों में विभाजित है : ‘गयावाल कर्ण’ – जो गया में बसे और ‘मैथिल कर्ण’ जो मिथिला में जाकर बसे | इनमें दास, दत्त, देव, कण्ठ, निधि,मल्लिक, लाभ, चौधरी, रंग आदि पदवी प्रचलित है| मैथिल कर्ण कायस्थों की एक विशेषता उनकी पंजी पद्धति है | पंजी वंशावली रिकॉर्ड की एक प्रणाली है | कर्ण 360 अल में विभाजित हैं | इस विशाल संख्या का कारण वह कर्ण परिवार हैं जिन्हों ने कई चरणों में दक्षिण भारत से उत्तर की ओर पलायन किया | इस समुदाय का महाभारत के कर्ण से कोई सम्बन्ध नहीं है |

8- चारुण [श्री अतिन्द्रिय] ( कुलश्रेष्ठ )– उनका राशि नाम सदानंद है और उन्हों ने देवी मंजुभाषिणी से विवाह किया | वह देवी लक्ष्मी की आराधना करते हैं | महाराज चित्रगुप्त जी ने श्री अतिन्द्रिय (जितेंद्रिय) को कन्नौज क्षेत्र में राज्य स्थापित करने भेजा था| श्री अतियेंद्रिय चित्रगुप्त जी की बारह संतानों में से अधिक धर्मनिष्ठ और सन्यासी प्रवृत्ति वाली संतानों में से थे | उन्हें ‘धर्मात्मा’ और ‘पंडित’ नाम से जाना गया और स्वभाव से धुनी थे | उनके वंशज कुलश्रेष्ठ नाम से जाने गए |आधुनिक काल में वे मथुरा, आगरा, फर्रूखाबाद, इटाह, इटावाह और मैनपुरी में पाए जाते हैं | कुछ कुलश्रेष्ठ जो की माता नंदिनी के वंश से हैं, नंदीगांव – बंगाल में पाए जाते हैं |

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कायस्थ जाति पर माननीय न्यायालयों के निर्णय https://blog.kayasthvivaah.com/2021/04/02/%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a5-%e0%a4%9c%e0%a4%be%e0%a4%a4%e0%a4%bf-%e0%a4%aa%e0%a4%b0-%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%a8%e0%a5%80%e0%a4%af-%e0%a4%a8%e0%a5%8d%e0%a4%af/ https://blog.kayasthvivaah.com/2021/04/02/%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a5-%e0%a4%9c%e0%a4%be%e0%a4%a4%e0%a4%bf-%e0%a4%aa%e0%a4%b0-%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%a8%e0%a5%80%e0%a4%af-%e0%a4%a8%e0%a5%8d%e0%a4%af/#respond Fri, 02 Apr 2021 11:56:05 +0000 https://blog.kayasthvivaah.com/?p=2218 कायस्थ जाति पर माननीय न्यायालयों के निर्णय Read More »

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बनारस के राजा के आग्रह पर पूना, बंगाल, काशी, अवध, मथुरा, जम्मू-कश्मीर एवं बम्बई के विद्वान पंडितों ने यह व्यवस्था दी थी कि कायस्थ जाति क्षत्रिय वर्ण के अन्तर्गत आती है। उसी प्रकार विभिन्न न्यायलयों के निर्णयों में भी कायस्थों को क्षत्रिय माना गया है।

यद्यपि कलकत्ता उच्च न्यायालय ने 1884 ई0 के राजकुमार लाल बनाम विश्वेश्वर दयाल के वाद के न्याय निर्णय में कायस्थों को शूद्र मान लिया था। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने श्यामा चरण सरकार की लिखी पुस्तक ‘व्यवस्था दर्पण’ के आधार पर कायस्थों को शूद्र माना था। किन्तु श्यामाचरण सरकार की पुस्तक ‘व्यवस्था दर्पण’ में यह भी लिखा हुआ है कि कायस्थ क्षत्रिय थे किन्तु, बंगाल में बसने से वे शूद्र हो गये। क्योंकि वे अपने नाम के बाद ‘दास’ उपनाम जोड़ने लगे और उन्होने उपनयन संस्कारादि छोड़ दिया। किन्तु धर्मशास्त्र के प्रायश्चित खण्ड में यह भी स्पष्ट लिखा हुआ है कि आचार-व्यवहार छोड़ देने पर ‘द्विज’ नीच हो सकते हैं किन्तु किसी भी हालत में शूद्र नहीं हो जाते। प्रायश्चित करके वे पुनः पवित्र हो सकते हैं।

उल्लेखनीय है कि, कलकत्ता उच्च न्यायालय के उपरोक्क्त निर्णय को ‘प्रिवी कौंसिल’ ने नही माना और कायस्थो को क्षत्रिय घोषित किया। विश्व विद्वान रोमां रोलां ने भी अपनी रचना ‘द लाइफ ऑफ विवेकानंद एंड द यूनिवर्सल गोस्पेल’ में स्वामी विवेकानंद के संबंध में लिखा है जो पूर्व में नरेन्द्रनाथ दत्त कहलाते थे और जाति से कायस्थ थे। उन्होने पुस्तक के फुटनोट में विवेकानंद को क्षत्रिय मानते हुए लिखा है, “He belonged to the Kayastha Class, a sub caste of warriors.”-Page-6, The Life of Vivekanand and the Universal Gospel, 1947 edition. “

Notwithstanding the ruling of a Division Vench of Calcutta High Court, I entertain Considerable doubts as to the soundness of the view which seems adopted by the courts that the literary Caste of Kayasthas in the parts of the Country to which the parties belong falls under the Category of “Sudras”.

(I.L.R. – Page 324-328)

इतना ही नहीं पटना उच्च न्यायालय ने भी कायस्थों को क्षत्रिय वर्ण माना है। माननीय न्यायाधीश सर ज्वाला प्रसाद ने १९२७ ई0 के ईश्वरी प्रसाद बनाम राय हरि प्रसाद के वाद में ८४ पृष्ठो का अपना निर्णय देते हुए कायस्थों को क्षत्रिय वर्ण का घोषित किया है। उन्होने अपने निर्णय में लिखा है कि:-

“The reason given by Shyama Charan Sarkar in this “Vayavastha Darpan” can not cause degradation of the Kayasthas to Sudradom and in any case the Behari Kayasthas are not Sudras and I respectfully differ from the view given in the cause of Raj Kumar Lal Vrs. Bisheshwar.

(I.L.R. VI, Patna No. 145)

भले ही कायस्थों को पुराणों के आधार पर पंडितों द्वारा या न्यायालय के निर्णयों के आधार पर क्षत्रिय अथवा शूद्र कहा जाए लेकिन पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर वे वास्तव में ब्राह्मण वर्ण के अन्तर्गत ही है, जैसा कि इस पुस्तक के एक अध्याय में एतद्सम्बंधी विवेचना की गई है।

कायस्थों की उत्पतित और हिन्दू समाज में उनके स्थान के विषय में 1884 र्इ0 में अपना निर्णय देते हुए कलकत्ता के उच्च न्यायालय ने उन्हें शूद्र वर्ग में देखा। इससे क्षुब्द होकर उत्तर प्रदेश के कायस्थों ने इलाहाबाद हार्इ कोर्ट में यह तर्क दिया कि उत्तर प्रदेश और बिहार के कायस्थों की उत्पतित भिन्न है। सन 1889 में इलाहाबाद हार्इ कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के कायस्थों को क्षत्रिय मानते हुए अपना फैसला सुनाया। 23 फरवरी 1926 को पटना हार्इ कोर्ट ने उस समय तक के निर्णयों की समीक्षा करते हुए और हिन्दू ग्रन्थों के आधार पर उन्हें क्षत्रिय घोषित किया।

1975 में इलाहाबाद से प्रकाशित एक पुसितका में उन्हें ब्राह्राण वर्ण का सिद्व किया गया। किन्तु ब्राह्राण उन्हें पाचवें वर्ण का मानते हैं और उनकी उत्पतित प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न बताते हैं। इसका खण्डन करते हुए पटना हार्इ कोर्ट ने कहा कि मनुस्मृति ने अध्याय 10 श्लोक 4 में मानव जाति को मात्र चार वर्णों में बांटा है। अत: कायस्थों का स्थान उन्हीं चार वर्णों में निशिचत करना पड़ेगा।

उस निर्णय में ‘यम संहिता’ के उल्लेख से यह कहा गया कि धर्मराज द्वारा अपने कठिनाइयों की शिकायत करने पर ब्रह्रा ने अपनी काया से चित्रगुप्त को उपन्न किया और उन्हें ‘कायस्थ कहा और उनसे बारह सन्तानें हुर्इ जिनसे बारह उप जातियों के कायस्थ हुये। ‘पध पुराण’ उत्तर खण्ड में उन बारह पुत्रों का विवाह नाग कन्याओं से होना बताया गया है। विभिन्न स्मृतियों के आधार पर यह भी कहा गया कि कायस्थ का काम लेखक और गणक का था और उसकी अपनी लिपि थी, जिसे कैथी कहते हैं।

पटना हार्इकोर्ट ने निर्णय दिया कि कायस्थ क्षत्रिय हैं

 ‘वृहदारण्यक उपनिषद’ में जो स्मृतियों और पुराणों से पुराना है, याज्ञवल्क्य ने प्रथम अध्याय के 11 वें मंत्र में कहा है कि सृषिट के आरम्भ में ब्रह्रा अकेला था। उसने पहिले ‘क्षत्र’ उत्पन्न किया। जब उससे काम न चला तो वैश्य उत्पन्न किया और जब उन दोनों से काम न चला तो शूद्र उत्पन्न किया। इस मंत्र में ब्रह्रा अलग अलग अंगों से अलग-अलग वर्णों के उत्पन्न होने की बात नहीं दुहरार्इ गर्इ है और न ‘काया’ से कायस्थ के चित्रगुप्त के उत्पन्न होने की बात कही गयी है।

धर्म ग्रन्थों की यह अलग-अलग व्याख्यायें मात्र चिन्तन का परिणाम है, किसी इतिहास या प्रमाण पर आधारित नहीं हैं। स्मृतियों और पुराणों की रचना पांचवीं से आठवीं शताब्दी र्इसवी में हुर्इ। वे ब्रह्रा द्वारा वर्णों की उत्पतित के बारे में कैसे कुछ कह सकती हैं?

अत: आज के वैज्ञानिक युग में हमें उन ग्रंथों की कल्पना की मूल व्याख्या से अलग हट कर विचार करना होगा। यदि कायस्थ पटना हार्इ कोर्ट के निर्णय के अनुसार अपने को क्षत्रिय मानते रहे तो उसका तार्किक परिणाम यह होगा कि वे ब्राह्राण से नीचे हैं जिन्हें क्षत्रिय भी क्षत्रिय नहीं मानते। अत: वे दूसरे दर्जे के क्षत्रिय हुये। आज हम यह मानते हैं कि सभी मनुष्य बराबर हैं। वैदिक युग में ब्राह्राण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि वर्ण नहीं थे। सभी व्यकित अपने को आर्य कहते थे। उपनिषदों में यह कहा गया है कि सभी जड़ व चेतन वस्तुओं में र्इश का निवास है। अत: सब को अपना-सा ही समझो। फिर ब्राह्राण, क्षत्रिय और कायस्थ में भेद कैसा ?

कायस्थों की उत्पतित के बारे में स्मृतियों और पुराणों की यह बात सही है कि वे प्रथम लेखक और गणक रहे हैं उन्हें धर्मशास्त्रों का ज्ञान था। इस व्याख्या के अनुसार वे ब्राह्राण थे, क्योंकि क्षत्रियों को भी लिखने और गणना करने के कार्य से कुछ लेना देना नहीं था और वैश्यों तथा शूद्रों को धर्मशास्त्रों से दूर रखा गया था। इतिहास तथा स्मृतियों और पुराणों की विषय वस्तु के अनुसार उनकी रचना र्इसा की पाचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच हुर्इ। इससे भी कायस्थों की उत्पतित र्इसा की पाचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच होना ही प्रमाणित होता है न कि ब्रह्रा से। पर यह सम्भव है कि प्रथम कायस्थ का नाम चित्रगुप्त रहा हो। सम्भवत: वे गुप्त राजाओं से सम्बनिधत और उनके विश्वस्त मंत्री या प्रधान लेखाकार या न्यायकर्ता रहे। इस बात को आज का इतिहास स्वीकार करता है।

इस सम्बन्ध में दिल्ली विश्वविधालय के प्रोफेसर डी0 एन0 झा और कृष्ण मोहन श्रीमाली ने अपनी पुस्तक प्राचीन भारत का इतिहास में लिखा है :-

‘एक जाति के रुप में कायस्थों का आविर्भाव एक महत्वपूर्ण सामाजिक घटना है। कायस्थों का सर्वप्रथम उल्लेख याज्ञवल्क्य स्मृति में है। इसमें कहा गया है कि राजा को चाहिए कि शोषित प्रजा की विशेषकर कायस्थों से रक्षा करें। अधिक संभावना यही है कि गणक और लेखक के रुप में कायस्थ भूमि और राजस्व सम्बन्धी अभिलेख रखते थे और पद का अनुचित लाभ ठाकुर प्रजा पर अत्याचार करते थे। कालांतर में भूमि तथा राजस्व सम्बन्धी कार्यों में वृद्वि हुर्इ। मंदिरों और ब्राह्राणों को भूमि दान में दी जाती थी। भूमि के क्रय विक्रय के भी उल्लेख मिलते हैं। भूमि सीमा निर्धारण सम्बन्धी दस्तावेज रखने पड़ते थे। कौन सी भूमि कर मुक्त है, किससे कौन से कर लिये जाने हैं, किस वर्ग से विषिट लेनी है, इन सभी कार्यों का हिसाब किताब व दस्तावेज कायस्थों को ही रखना पड़ता था। फलत: कायस्थों की संख्या में वृद्वि हुर्इ। न्यायाधिकरण में न्याय-निर्णय लिखने का कार्य ‘करणिक’ करते थे। वे लेखक, गणक या दस्तावेज रखने वाले अनेक नामों से पुकारे जाते थे। जैसे कायस्थ, कारणिक, पुस्तपाल, अलक्ष, पाटलिक, दीविर, लेखक आदि। कालांतर में वे सभी कायस्थ वर्ग मे समाविष्ट हो गये।’

आगे  कहा गया है कि कायस्थों में विभिन्न वर्णों के लोग थे। वे राजा को विभिन्न कर लगाने की सलाह देते थे। धर्मशास्त्रों ने इस पर आक्षेप किया और ब्राह्राण वर्ग कायस्थों का विरोधी हो गया। कुछ ने उनको शूद्र कहा। किन्तु उनके सत्ता में रहने के कारण अनेक धर्मशास्त्रों को यह व्यवस्था देनी पड़ी कि वे क्षत्रिय हैं।

आज का कायस्थ अपने को क्षत्रिय कहलाने के लोभ में उन्हीं ब्राह्राणों को अपने से श्रेष्ठ मानने लगा है, वर्ण व्यवस्था में अपना स्थान ढूढने लगा है और स्मृतियों तथा पुराणों को मान्यता देने लगा है। वह ब्रात्य क्षत्रिय माने जाने से भी संतुष्ट हैं जैसा पटना हार्इ कोर्ट के उपरोक्त निर्णय में कहा गया है।

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