कायस्थों की उत्पत्ति के विषय में अनेकों लेख प्रकाशित हो चुके हैं तथा पौराणिक व ऐतिहासिक दोनों ही द्रष्टियों से वे उच्च वर्ग के अन्तर्गत माने गये हैं। देश के अन्य भू-भागों की भांति बिहार में भी इनका इतिहास काफी पुराना है। याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार वे र्इसापूर्व तीसरी शताब्दी में ही अपना विशिष्ट स्थान बना चुके थे। नंदवंश के राज्य में मंत्री शकटार कायस्थ थे। उनके पुत्र स्थूलभद्र जैन मुनि बन गये तथा श्री चक्र ने मंत्री पद सुशोभित किया। मुद्राराक्षस एवं मृच्छकटिक ग्रन्थों में भी कायस्थों का उल्लेख मिलता है। राजतंत्र में फेर बदल के फलस्वरुप उनका स्वरुप बदलता रहा, किन्तु गुप्तकाल में उनको पुन: विशिष्ट जाति का दर्जा मिला कुछ कायस्थों की सुकीर्ति तो ऐसी उभरी कि वे कालजयी हो गये। आर्यभटट (476) र्इ0 इनमें प्रमुख है। वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने प्रमाणित किया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर सूर्य की परिक्रमा करती है जिसके फलस्वरुप दिन-रात तथा समय-समय पर ग्रहण होते है। उन्होंने ‘आर्यभटटतंत्र’ तथा ‘आर्य भटीय’ की रचना संस्कृत भाषा में की। भारत सरकार ने इसी वि़द्वान के नाम पर प्रथम उपग्रह का नाम ‘आर्यभटट’ रखा।
हर्ष वर्धन (606-646 र्इ0) के समय में वाणभटट हुये। इनके ग्रन्थ ‘हर्षचरित’ एवं ‘कादम्बरी’ काव्य साहित्य तथा ऐतिहासिक द्रष्टि से काफी महत्वपूर्ण माने जाते हैं। पूर्वी भारतीय भाषाओं के जनक के रुप में सिद्धो का विशेष योगदान रहा। इनमें लुइया (830 र्इ0) तथा कण्हपा (840 र्इ0) कायस्थ थे। सातवीं शताब्दी में नालन्दा एशिया का सर्वश्रेष्ठ विश्वविधालय था। यहा के ख्याति प्राप्त आचार्यों में नामार्जुन जन्मजा कायस्थ थे। मिथिला में जब कर्णाट वंश के नान्यदेव ने शासन चलाया तो इनके साथ कायस्थ श्रीधर मंत्री के रुप में आये। इसी वंश के शासन काल (1097-1147 र्इ0) के बीच लक्ष्मीधर राजा गोविन्द चन्द्र देव के संधि विग्रह मंत्री थे। उन्होंने विधि की प्रसिद्ध पुस्तक ‘कृत्य कल्प तरु’ की रचना की तथा इसी के आधार पर मिथिला का राज्य शासन चलता रहा। राजा अंगदेव ने प्रत्येक परगने में समाहर्ता नियुक्त किये जिन्हें चौधरी की उपाधि दी गर्इ। यह कायस्थ थे और मिथिला में आज भी कायस्थों की उपाधि चौधरी है।
मुगलकाल में कायस्थों का विशेष उल्लेख नहीं मिलता। अंग्रेजों के बिहार में आगमन से कायस्थ पुन: प्रकाश में आने लगे। सुलेख तथा अच्छे भाषा ज्ञान के आधार पर वे भाषा मुंशी के पद पर नियुक्त हुये और कालान्तर में मुंशी कहलाने लगे। प्रशासन में वे रीढ़ की हडडी के समान महत्वपूर्ण थं। कुछेक कायस्थ बन्धुओं ने धर्म-संस्कृति आदि के क्षेत्र में भी अपनी पहचान बनार्इ। ऐसे ही एक सन्त मंगनीराम (1943 र्इ0) हुये जिनका ‘रामसिन्धु’ (883 पृ0) सन्तमत की ज्ञानाश्रयी शाखा का प्रमुख ग्रंथ है। 1953 र्इ0 में सारण जिलान्तर्गत चित्रांश परिवार में निगुर्णिया सन्त श्री धरम दास हुये। आपके ग्रन्थ ”प्रेम प्रकाश’ व ‘सत्य प्रकाश’ निर्गुण शाखा की अनमोल पूंजी है। इसी प्रखण्ड में भक्तकवि हलधर दास (1958 र्इ0) हुये। शीतला के प्रकोप से यह द्रष्टि विहीन हो गये, फिर भी इन्होंने ‘सुदामा चरित’ की रचना की जो कृष्ण भक्ति काव्य का एक अनुपम ग्रन्थ है।
स्वतन्त्रता संग्राम की पहली लड़ार्इ (1857 र्इ0) से यह सिद्ध हो गया कि अंग्रेज वास्तव में भारतीयों के शत्रु थे। अत: विभिन्न स्तरों पर उनके विरोध में आन्दोलन और प्रचार भी होने लगा। अपनी रचनाओं द्वारा देश भक्ति जाग्रत करने में सारण जिले के रघुवीर नारायण जी का विशेष योगदान रहा। गाधी जी की दाण्डी यात्रा में श्री गिरवर धर चौधरी निरन्तर उनके साथ रहे। स्वाधीनता संग्राम में जिन कायस्थ बन्धुओं ने अपना योगदान दिया उनमें देशरत्न डा0 राजेन्द्र प्रसाद, सच्चिदानन्द सिन्हा तथा महेश नारायण विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। डा0 राजेन्द्र प्रसाद तो बाद में देश के प्रथम राष्ट्रपति हुये। अन्य दोनों चित्रांश बन्धुओं के सफल आन्दोलन के फलस्वरुप 1912 र्इ0 में पृथक बिहार प्रान्त का निर्माण हुआ। आजादी की लड़ार्इ में लोक नायक जय प्रकाश नारायण के योगदान को तो हम भूल ही नहीं सकते। बिहार में कायस्थों की विशिष्ट स्थिति रही हैं। प्रशासन से जुड़े रहकर भी वे अपनी अलग पहचान बनाये रखने में सफल रहे। यह विशिष्टता प्रमुखत: शिक्षा के कारण बनी। अंग्रेजों के शासन काल में तो कायस्थ बन्धुओं की पुलिस विभाग, शिक्षा विभाग, काननगो, आबकारी, मुंसिफी आदि में काफी संख्या थी, जो कालान्तर में विषम परिस्थितियों के कारण कुछ घटने लगी। फिर भी लगभग प्रत्येक क्षेत्र में वे अपनी पहचान बनाये रखने में सफल रहे हैं।