कायस्थ भारत में रहने वाले सवर्ण हिन्दू समुदाय की एक जाति है। गुप्तकाल के दौरान कायस्थ नाम की एक उपजाति का उद्भव हुआ। पुराणों के अनुसार कायस्थ प्रशासनिक कार्यों का निर्वहन करते हैं।
हिंदू धर्म की मान्यता है कि कायस्थ धर्मराज श्री चित्रगुप्त जी की संतान हैं तथा देवता कुल में जन्म लेने के कारण इन्हें ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों धर्मों को धारण करने का अधिकार प्राप्त है।
वर्तमान में कायस्थ मुख्य रूप से श्रीवास्तव, सिन्हा, सक्सेना, मल्लिक, अम्बष्ट, निगम, माथुर, भटनागर, लाभ, लाल, कुलश्रेष्ठ, अस्थाना, बिसारिया, कर्ण, वर्मा, खरे, राय, सुरजध्वज, विश्वास, सरकार, बोस, दत्त, चक्रवर्ती, श्रेष्ठ, प्रभु, ठाकरे, आडवाणी, नाग, गुप्त, रक्षित, बक्शी, मुंशी, दत्ता, देशमुख, पटनायक, नायडू, सोम, पाल, राव, रेड्डी, दास, मंडल, मेहता आदि उपनामों से जाने जाते हैं। वर्तमान में कायस्थों ने राजनीति और कला के साथ विभिन्न व्यावसायिक क्षेत्रों में सफलतापूर्वक विद्यमान हैं। वेदों के अनुसार कायस्थ का उद्गम ब्रह्मा ही हैं। उन्हें ब्रह्मा जी ने अपनी काया की सम्पूर्ण अस्थियों से बनाया था, तभी इनका नाम काया+अस्थि = कायस्थ हुआ।
कायस्थ – धर्मराज चित्रगुप्त के वंसज
वर्ण – द्विज -क्षत्रिय
जति – राजन्य कायस्थ
उपनाम – धर्मराजपुत्र
विष्णुपुराण , याज्ञवल्क्य पुराण , वृहत पुराण आदि ख्यात शास्त्रो में यह प्रमाणित किया गया है कि महाराज चित्रगुप्त यमराज के लेखक थे। और कालांतर कायस्थ शब्द का अर्थ विद्वानो द्वारा लेखक बताया गया जो कि पूर्णतया गलत है वैसे ही जैसे इन विद्वानो ने वेदो में लिखे तैतीस कोटी का अर्थ तैतीस करोड़ बता दिया जबकि कोटि का अर्थ प्रकार से है । ब्राहमणो द्वारा लेखन अशुद्ध किये जाने के कारण स्वयं क्षत्रिय अपने जरुरत के हिसाब से लिखने लगे या उक्त कार्य के लिए क्षत्रियो को ही नियुक्त किया जाने लगा।
कायस्थ से ईर्ष्या होने के कारण ब्राहमणो ने कई बार कायस्थों को शुद्र शाबित करने कि कोसिस की और जब नहीं कर सके तो उनके ग्रंथो में लिख दिया जिनका अनुकरण उनकी पीढ़ियां करने लगी । ऐसी कुछ घटनाओ का वर्णन करता हूँ ।
जब स्वामी विवेकानंद को विश्व धर्मं सभा में सम्मिलित होने शिकागो जाना था तब बंगाल के ब्राह्मण इनके विरोध में आ गये और कह दिया ये कायस्थ हैं कायस्थ शुद्र होते हैं इसको धर्म सभा में जाने का अधिकार नहीं । इस घटना पर स्वामी ने उन सबको उत्तर दिया जो इस प्रकार है :-
स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था –
“समाज सुधारकों की पत्रिका में मैंने देखा कि मूझे शूद्र बताया गया है और चुनौती दी गई है कि शूद्र संन्यासी कैसे हो सकता है। इस पर मेरा जवाब है : मैं अपना मूल वहां देखता हूं जिसके चरणों में हर ब्राह्मण ये कहते हुए वंदना करता है और पुष्प अर्पित करता है – यमाय धर्मराजाय चित्रगुप्ताय वै नम:। और जिनके पूर्वपुरुष क्षत्रीय में भी सबसे पवित्र गिने जाते हैं। अगर आप अपने धर्मग्रंथों और पुराणों पर विश्वास रखते हैं तो उन तथाकथित सुधारकों को ये मालूम होना चाहिए कि अतीत में दूसरे योगदान के अलावा मेरी जाति ने कई सदियों तक लगभग आधे भारत पर शासन किया है। अगर मेरी जाति की बात छोड़ दी जाए तो वर्तमान भारतीय सभ्यता में क्या शेष रह जाएगा। सिर्फ बंगाल में ही मेरी जाति ने सबसे महान दर्शनशास्त्री, सबसे महान कवि, सबसे महान इतिहासकार, सबसे महान पुरातत्ववेत्ता, सबसे महान धर्मप्रचारक दिए हैं। हमारी जाति से भारत के सबसे महान आधुनिक वैज्ञानिक पैदा हुए हैं। इन विरोधियों को इतिहास का ज्ञान होना चाहिए और जानना चाहिए कि ब्राह्मण, क्षत्रीय और वैश्य इन तीनों जातियों को संन्यासी बनने का समान अधिकार है। उन्हें वेद पाठ करने का भी समान अधिकार है। वैसे ये तो एक बात है। यदि वो मुझे शूद्र कहते हैं तो भी मुझे कोई कष्ट नहीं है।”
कायस्थ के प्रकार (1) चित्रगुप्त कायस्थ (ब्रह्म कायस्थ या कायस्थ ब्राह्मण) गोत्र कश्यप (2) चन्द्रसेनीय कायस्थ प्रभु (राजन्य क्षत्रिय कायस्थ) गोत्र बगादालिया
हिंदी भाषी क्षेत्र में रहने वाले कायस्थ – श्रीवास्तव, अस्थाना, गौर, कुलश्रेष्ठ, कर्ण इत्यादी सामान्यत: चित्रगुप्त वंशज ब्राहमण कायस्थ हैं, कर्ण कायस्थ का विवाह एवं ब्राह्मण का विवाह एवं सभी संस्कार एक जैसा होता है I
जबकि महाराष्ट्र एवं बंगाल के कायस्थ क्षत्रिय हैं जिन्होंने परशुराम के क्षत्रिय वध के कारण कायस्थ बनाना स्वीकार किया | इनका संस्कार एवं त्यौहार क्षत्रिय की तरह होता है।
त्रेता युग में परशुराम नें सहत्रार्जुन को मारकर क्षत्रियों के वंश को मिटाया। उस समय कुछ क्षत्रियों व क्षत्राणियों नें जंगल व पहाड़ की और भागकर अपनी रक्षा की थी । उनमें से चन्द्रसेन राजा की रानी गर्भावस्था में थीं । वह भागकर बगदालिया मुनी की कुटी में पहुंची । मुनी नें स्त्री को दुखी व अनाथ देखकर शरण दी। जब परशुराम जी को पता चला तो वह बगदालिया मुनी के पास पहुंचे, बगदालिया मुनी भगवान परशुराम जी को आया देख बडे ही आदरभाव से उनका सत्कार किया एवं पूरे विधी विधान से उनकी पूजा अर्चना कर उन्हे आसन दिया और प्रसाद तैयार करा कर भोजन ग्रहन करनें का निवेदन किया। बगदालिया मुनी का आदरभाव देख भगवान परशुराम जी ने भोजन ग्रहन किया और भोजनोपरांत भगवान परशुराम जी बोले आपकी कुटिया में चन्द्रसेन राजा की रानी गर्भ सहित आई है उसे मुझे सौप दिजीए जिससे मै उसे गर्भ सहित मिटा सकूं। बगदालिया मुनी नें उन्हे देना स्वीकार किया। तब भगवान परशुराम जी बगदालिया मुनी पर खुश होकर उनसे एक मनोरथ मागनें को कहा तब बगदालिया मुनी नें कहा कि आप उसी स्त्री का गर्भ हमें दे दीजिए। भगवान परशुराम जी यह सुनकर हंसे और स्त्री को वापस करनें को स्वीकार किया। बगदालिया मुनी नें तब उस स्त्री से भगवान परशुराम जी के चरण कमल को प्रणाम करवाया।
परशुराम जी नें प्रसन्न होकर बगदालिया मुनी से कहा कि आप तो जानते है मैं क्षत्रियों का नाश करनें वाका तीनो लोको में विदित हूँ परंतु आपनें इस स्त्री के गर्भ को मांग लिया है इस कारण अब मैं इसे नहीं मारूंगा किंतु मेरे रहते कोइ क्षत्रिय बच नही सकता इस कारण जब इस स्त्री की गर्भावस्था समाप्त हो तब इस बालक को चित्रगुप्त के वंश संस्कार कराकर इसे कायस्थ धर्म दीजिएगा। भविश्य में इस वंश वाले बगदालिया गोत्र कायस्थ कहे I
कलाम दवात पूजन कलम दवात पूजन का संदर्भ हमें किवदंतियों में मिला I कहते है जब भगवान् राम दशानन रावण को मार कर अयोध्या लौट रहे थे, तब उनके खडाऊं को राजसिंहासन पर रख कर राज्य चला रहे राजा भरत ने गुरु वशिष्ठ को भगवान् राम के राज्यतिलक के लिए सभी देवी देवताओं को सन्देश भेजने की वयवस्था करने को कहा I गुरु वशिष्ठ ने ये काम अपने शिष्यों को सौंप कर राज्यतिलक की तैयारी शुरू कर दीं I ऐसे में जब राज्यतिलक में सभी देवीदेवता आ गए तब भगवान् राम ने अपने अनुज भरत से पूछा चित्रगुप्त नहीं दिखाई दे रहे है इस पर जब खोज बीन हुई तो पता चला की गुरु वशिष्ठ के शिष्यों ने भगवान चित्रगुप्त को निमत्रण पहुंचाया ही नहीं था जिसके चलते भगवान् चित्रगुप्त नहीं आये I इधर भगवान् चित्रगुप्त सब जान तो चुके थे और इसे भी नारायण के अवतार प्रभु राम की महिमा समझ रहे थे फलस्वरूप उन्होंने गुरु वशिष्ठ की इस भूल को अक्षम्य मानते हुए यमलोक में सभी प्राणियों का लेखा जोखा लिखने वाली कलम को उठा कर किनारे रख दिया I सभी देवी देवता जैसे ही राजतिलक से लौटे तो पाया की स्वर्ग और नरक के सारे काम रुक गये थे , प्राणियों का का लेखा जोखा ना लिखे जाने के चलते ये तय कर पाना मुश्किल हो रहा था की किसको कहाँ भेजे I तब गुरु वशिष्ठ की इस गलती को समझते हुएभगवान राम ने अयोध्या में भगवान् विष्णु द्वारा स्थापित भगवान चित्रगुप्त के मंदिर ( श्री अयोध्या महात्मय में भी इसे श्री धर्म हरि मंदिर कहा गया है धार्मिक मान्यता है कि अयोध्या आने वाले सभी तीर्थयात्रियों को अनिवार्यत: श्री धर्म-हरि जी के दर्शन करना चाहिये, अन्यथा उसे इस तीर्थ यात्रा का पुण्यफल प्राप्त नहीं होता।) में गुरु वशिष्ठ के साथ जाकर भगवान चित्रगुप्त की स्तुति की और गुरु वशिष्ठ की गलती के लिए क्षमायाचना की, जिसके बाद नारायण रूपी भगवान राम के आदेश मानकर भगवान चित्रगुप्त ने लगभग ४ पहर (२४ घंटे बाद ) पुन: कलम की पूजा करने के पश्चात उसको उठाया और प्राणियों का लेखा जोखा लिखने का कार्य आरम्भ किया I कहते तभी से कायस्थ दीपावली की पूजा के पश्चात कलम को रख देते हैं और यम द्वीत्या के दिन भगवान चित्रगुप्त का विधिवत कलम दवात पूजन करके ही कलम को धारण करते है कहते है तभी से कायस्थ ब्राह्मणों के लिए भी पूजनीय हुए और इस घटना के पश्चात मिले वरदान के फलस्वरूप सबसे दान लेने वाले ब्राह्मणों से दान लेने का हक़ भी कायस्थों को ही है I