कायस्थ जाति पर माननीय न्यायालयों के निर्णय

बनारस के राजा के आग्रह पर पूना, बंगाल, काशी, अवध, मथुरा, जम्मू-कश्मीर एवं बम्बई के विद्वान पंडितों ने यह व्यवस्था दी थी कि कायस्थ जाति क्षत्रिय वर्ण के अन्तर्गत आती है। उसी प्रकार विभिन्न न्यायलयों के निर्णयों में भी कायस्थों को क्षत्रिय माना गया है।

यद्यपि कलकत्ता उच्च न्यायालय ने 1884 ई0 के राजकुमार लाल बनाम विश्वेश्वर दयाल के वाद के न्याय निर्णय में कायस्थों को शूद्र मान लिया था। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने श्यामा चरण सरकार की लिखी पुस्तक ‘व्यवस्था दर्पण’ के आधार पर कायस्थों को शूद्र माना था। किन्तु श्यामाचरण सरकार की पुस्तक ‘व्यवस्था दर्पण’ में यह भी लिखा हुआ है कि कायस्थ क्षत्रिय थे किन्तु, बंगाल में बसने से वे शूद्र हो गये। क्योंकि वे अपने नाम के बाद ‘दास’ उपनाम जोड़ने लगे और उन्होने उपनयन संस्कारादि छोड़ दिया। किन्तु धर्मशास्त्र के प्रायश्चित खण्ड में यह भी स्पष्ट लिखा हुआ है कि आचार-व्यवहार छोड़ देने पर ‘द्विज’ नीच हो सकते हैं किन्तु किसी भी हालत में शूद्र नहीं हो जाते। प्रायश्चित करके वे पुनः पवित्र हो सकते हैं।

उल्लेखनीय है कि, कलकत्ता उच्च न्यायालय के उपरोक्क्त निर्णय को ‘प्रिवी कौंसिल’ ने नही माना और कायस्थो को क्षत्रिय घोषित किया। विश्व विद्वान रोमां रोलां ने भी अपनी रचना ‘द लाइफ ऑफ विवेकानंद एंड द यूनिवर्सल गोस्पेल’ में स्वामी विवेकानंद के संबंध में लिखा है जो पूर्व में नरेन्द्रनाथ दत्त कहलाते थे और जाति से कायस्थ थे। उन्होने पुस्तक के फुटनोट में विवेकानंद को क्षत्रिय मानते हुए लिखा है, “He belonged to the Kayastha Class, a sub caste of warriors.”-Page-6, The Life of Vivekanand and the Universal Gospel, 1947 edition. “

Notwithstanding the ruling of a Division Vench of Calcutta High Court, I entertain Considerable doubts as to the soundness of the view which seems adopted by the courts that the literary Caste of Kayasthas in the parts of the Country to which the parties belong falls under the Category of “Sudras”.

(I.L.R. – Page 324-328)

इतना ही नहीं पटना उच्च न्यायालय ने भी कायस्थों को क्षत्रिय वर्ण माना है। माननीय न्यायाधीश सर ज्वाला प्रसाद ने १९२७ ई0 के ईश्वरी प्रसाद बनाम राय हरि प्रसाद के वाद में ८४ पृष्ठो का अपना निर्णय देते हुए कायस्थों को क्षत्रिय वर्ण का घोषित किया है। उन्होने अपने निर्णय में लिखा है कि:-

“The reason given by Shyama Charan Sarkar in this “Vayavastha Darpan” can not cause degradation of the Kayasthas to Sudradom and in any case the Behari Kayasthas are not Sudras and I respectfully differ from the view given in the cause of Raj Kumar Lal Vrs. Bisheshwar.

(I.L.R. VI, Patna No. 145)

भले ही कायस्थों को पुराणों के आधार पर पंडितों द्वारा या न्यायालय के निर्णयों के आधार पर क्षत्रिय अथवा शूद्र कहा जाए लेकिन पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर वे वास्तव में ब्राह्मण वर्ण के अन्तर्गत ही है, जैसा कि इस पुस्तक के एक अध्याय में एतद्सम्बंधी विवेचना की गई है।

कायस्थों की उत्पतित और हिन्दू समाज में उनके स्थान के विषय में 1884 र्इ0 में अपना निर्णय देते हुए कलकत्ता के उच्च न्यायालय ने उन्हें शूद्र वर्ग में देखा। इससे क्षुब्द होकर उत्तर प्रदेश के कायस्थों ने इलाहाबाद हार्इ कोर्ट में यह तर्क दिया कि उत्तर प्रदेश और बिहार के कायस्थों की उत्पतित भिन्न है। सन 1889 में इलाहाबाद हार्इ कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के कायस्थों को क्षत्रिय मानते हुए अपना फैसला सुनाया। 23 फरवरी 1926 को पटना हार्इ कोर्ट ने उस समय तक के निर्णयों की समीक्षा करते हुए और हिन्दू ग्रन्थों के आधार पर उन्हें क्षत्रिय घोषित किया।

1975 में इलाहाबाद से प्रकाशित एक पुसितका में उन्हें ब्राह्राण वर्ण का सिद्व किया गया। किन्तु ब्राह्राण उन्हें पाचवें वर्ण का मानते हैं और उनकी उत्पतित प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न बताते हैं। इसका खण्डन करते हुए पटना हार्इ कोर्ट ने कहा कि मनुस्मृति ने अध्याय 10 श्लोक 4 में मानव जाति को मात्र चार वर्णों में बांटा है। अत: कायस्थों का स्थान उन्हीं चार वर्णों में निशिचत करना पड़ेगा।

उस निर्णय में ‘यम संहिता’ के उल्लेख से यह कहा गया कि धर्मराज द्वारा अपने कठिनाइयों की शिकायत करने पर ब्रह्रा ने अपनी काया से चित्रगुप्त को उपन्न किया और उन्हें ‘कायस्थ कहा और उनसे बारह सन्तानें हुर्इ जिनसे बारह उप जातियों के कायस्थ हुये। ‘पध पुराण’ उत्तर खण्ड में उन बारह पुत्रों का विवाह नाग कन्याओं से होना बताया गया है। विभिन्न स्मृतियों के आधार पर यह भी कहा गया कि कायस्थ का काम लेखक और गणक का था और उसकी अपनी लिपि थी, जिसे कैथी कहते हैं।

पटना हार्इकोर्ट ने निर्णय दिया कि कायस्थ क्षत्रिय हैं

 ‘वृहदारण्यक उपनिषद’ में जो स्मृतियों और पुराणों से पुराना है, याज्ञवल्क्य ने प्रथम अध्याय के 11 वें मंत्र में कहा है कि सृषिट के आरम्भ में ब्रह्रा अकेला था। उसने पहिले ‘क्षत्र’ उत्पन्न किया। जब उससे काम न चला तो वैश्य उत्पन्न किया और जब उन दोनों से काम न चला तो शूद्र उत्पन्न किया। इस मंत्र में ब्रह्रा अलग अलग अंगों से अलग-अलग वर्णों के उत्पन्न होने की बात नहीं दुहरार्इ गर्इ है और न ‘काया’ से कायस्थ के चित्रगुप्त के उत्पन्न होने की बात कही गयी है।

धर्म ग्रन्थों की यह अलग-अलग व्याख्यायें मात्र चिन्तन का परिणाम है, किसी इतिहास या प्रमाण पर आधारित नहीं हैं। स्मृतियों और पुराणों की रचना पांचवीं से आठवीं शताब्दी र्इसवी में हुर्इ। वे ब्रह्रा द्वारा वर्णों की उत्पतित के बारे में कैसे कुछ कह सकती हैं?

अत: आज के वैज्ञानिक युग में हमें उन ग्रंथों की कल्पना की मूल व्याख्या से अलग हट कर विचार करना होगा। यदि कायस्थ पटना हार्इ कोर्ट के निर्णय के अनुसार अपने को क्षत्रिय मानते रहे तो उसका तार्किक परिणाम यह होगा कि वे ब्राह्राण से नीचे हैं जिन्हें क्षत्रिय भी क्षत्रिय नहीं मानते। अत: वे दूसरे दर्जे के क्षत्रिय हुये। आज हम यह मानते हैं कि सभी मनुष्य बराबर हैं। वैदिक युग में ब्राह्राण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि वर्ण नहीं थे। सभी व्यकित अपने को आर्य कहते थे। उपनिषदों में यह कहा गया है कि सभी जड़ व चेतन वस्तुओं में र्इश का निवास है। अत: सब को अपना-सा ही समझो। फिर ब्राह्राण, क्षत्रिय और कायस्थ में भेद कैसा ?

कायस्थों की उत्पतित के बारे में स्मृतियों और पुराणों की यह बात सही है कि वे प्रथम लेखक और गणक रहे हैं उन्हें धर्मशास्त्रों का ज्ञान था। इस व्याख्या के अनुसार वे ब्राह्राण थे, क्योंकि क्षत्रियों को भी लिखने और गणना करने के कार्य से कुछ लेना देना नहीं था और वैश्यों तथा शूद्रों को धर्मशास्त्रों से दूर रखा गया था। इतिहास तथा स्मृतियों और पुराणों की विषय वस्तु के अनुसार उनकी रचना र्इसा की पाचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच हुर्इ। इससे भी कायस्थों की उत्पतित र्इसा की पाचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच होना ही प्रमाणित होता है न कि ब्रह्रा से। पर यह सम्भव है कि प्रथम कायस्थ का नाम चित्रगुप्त रहा हो। सम्भवत: वे गुप्त राजाओं से सम्बनिधत और उनके विश्वस्त मंत्री या प्रधान लेखाकार या न्यायकर्ता रहे। इस बात को आज का इतिहास स्वीकार करता है।

इस सम्बन्ध में दिल्ली विश्वविधालय के प्रोफेसर डी0 एन0 झा और कृष्ण मोहन श्रीमाली ने अपनी पुस्तक प्राचीन भारत का इतिहास में लिखा है :-

‘एक जाति के रुप में कायस्थों का आविर्भाव एक महत्वपूर्ण सामाजिक घटना है। कायस्थों का सर्वप्रथम उल्लेख याज्ञवल्क्य स्मृति में है। इसमें कहा गया है कि राजा को चाहिए कि शोषित प्रजा की विशेषकर कायस्थों से रक्षा करें। अधिक संभावना यही है कि गणक और लेखक के रुप में कायस्थ भूमि और राजस्व सम्बन्धी अभिलेख रखते थे और पद का अनुचित लाभ ठाकुर प्रजा पर अत्याचार करते थे। कालांतर में भूमि तथा राजस्व सम्बन्धी कार्यों में वृद्वि हुर्इ। मंदिरों और ब्राह्राणों को भूमि दान में दी जाती थी। भूमि के क्रय विक्रय के भी उल्लेख मिलते हैं। भूमि सीमा निर्धारण सम्बन्धी दस्तावेज रखने पड़ते थे। कौन सी भूमि कर मुक्त है, किससे कौन से कर लिये जाने हैं, किस वर्ग से विषिट लेनी है, इन सभी कार्यों का हिसाब किताब व दस्तावेज कायस्थों को ही रखना पड़ता था। फलत: कायस्थों की संख्या में वृद्वि हुर्इ। न्यायाधिकरण में न्याय-निर्णय लिखने का कार्य ‘करणिक’ करते थे। वे लेखक, गणक या दस्तावेज रखने वाले अनेक नामों से पुकारे जाते थे। जैसे कायस्थ, कारणिक, पुस्तपाल, अलक्ष, पाटलिक, दीविर, लेखक आदि। कालांतर में वे सभी कायस्थ वर्ग मे समाविष्ट हो गये।’

आगे  कहा गया है कि कायस्थों में विभिन्न वर्णों के लोग थे। वे राजा को विभिन्न कर लगाने की सलाह देते थे। धर्मशास्त्रों ने इस पर आक्षेप किया और ब्राह्राण वर्ग कायस्थों का विरोधी हो गया। कुछ ने उनको शूद्र कहा। किन्तु उनके सत्ता में रहने के कारण अनेक धर्मशास्त्रों को यह व्यवस्था देनी पड़ी कि वे क्षत्रिय हैं।

आज का कायस्थ अपने को क्षत्रिय कहलाने के लोभ में उन्हीं ब्राह्राणों को अपने से श्रेष्ठ मानने लगा है, वर्ण व्यवस्था में अपना स्थान ढूढने लगा है और स्मृतियों तथा पुराणों को मान्यता देने लगा है। वह ब्रात्य क्षत्रिय माने जाने से भी संतुष्ट हैं जैसा पटना हार्इ कोर्ट के उपरोक्त निर्णय में कहा गया है।

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